मानव मात्र के प्रति कपटरहित आंतरिक स्नेह होना वात्सल्य गुण है। सम्यग्दर्शन के लिए वात्सल्य अंग का होना अति आवश्यक है। इस गुण के कारण जब सहधर्मी बंधु निकट आता है तब उसे हाथ जोड़ना, सन्मुख जाकर स्वागत करना, प्रशंसा के वचन कहना, पिच्छिका कमण्डलु, शास्त्र स्वरूप उपकरण देना सम्मान सूचक प्रवृत्ति होती है। गृहस्थ सम्यग्दृष्टि भी अपने सहधर्मी बंधुओं के सुख-दुःख में शामिल होकर उनके प्रति स्नेह प्रकट करता है। उन पर कदाचित् कोई संकट आता है तो यथाशक्ति उस संकट के निवारण में सहयोगी बनता है। परस्पर प्रेमभाव से अपने संगठन को सुदृढ़ रखता है ।
आचार्य समन्तभ्रद भ्रद स्वामी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में सम्यग्दर्शन के आठ गुणों में से सातवें वात्सल्य अंग का स्वरूप बताते हुए कहा है कि
स्वयूथ्यान्प्रति सद्भाव, सनाथापेतकैतवा ।
प्रतिपत्तिर्यथायोग्यं, वात्सल्यमभिलप्यते ॥ 17॥
अर्थात – अपने सहधर्मी बंधुओं के समूह के प्रति सद्भावनाओं से सहित मायाचार रहित उनकी योग्यता के अनुसार पूजा आदर-सत्कार आपसी सौहार्दरूप वात्सल्य अंग कहा जाता है।
मेरी भावना में भी कहा गया है कि
गुणीजनों को देख हृदय में मेरे प्रेम उमड़ आवे
बने जहां तक उनकी सेवा करके यह मन सुख पावे,
होऊं नहीं कृतघ्न कभी मैं, द्रोह न मेरे उर आवे
गुण-ग्रहण का भाव रहे नित, दृष्टि न दोषों पर जावे। ॥
वात्सल्य गुण के कारण हमारी दृष्टि किसी के अवगुणों पर नहीं जाकर उसके गुणों पर जाती है। यह गुण सेवा एवं विनय का भाव पैदा करता है। बिना स्वार्थ के प्राणी मात्र की सेवा की प्रेरणा इसी से मिलती है। मन को प्रसन्नता मिलती है तथा शारीरिक, मानिसक और आर्थिक शांति का रास्ता भी इसी गुण से मिलता है। अभिप्राय है कि हमें सहधर्मी बंधुओं के प्रति स्नेह रखना चाहिए। इससे हमारे आंतरिक गुणों को बल मिलता है और परस्पर प्रेम एवं सद्भाव का विस्तार होता है।
अनंत सागर
श्रावकाचार ( सोलहवाँ दिन)
रविवार , 16 जनवरी 2022, बांसवाड़ा
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