जैन शास्त्रों को समझने की दृष्टि से चार भागों में विभाजित किया गया है । पहले भाग प्रथमानुयोग का स्वरूप हमने पहले पढ़ लिया। दूसरे भाग को करणानुयोग नाम से जानते हैं। इस अनुयोग में तीन लोक के स्वरूप का वर्णन किया गया है, जिसे जान कर हम पापों से बच सकते हैं, क्योंकि काल, कर्म आदि कितना बढ़ा और उसकी गणना का वर्णन इसी ग्रन्थ में आता है। यह ध्यान देने योग्य बात है कि यहां पर मात्र जैन सिद्धांत को समझने की दृष्टि से ही विभाजन किया गया है । अन्य कोई कारण नही हैं ।
आचार्य समन्तभ्रद स्वामी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में करणानुयोग ग्रन्थ का स्वरूप का वर्णन करते हुए लिखा है कि…
लोकालोकविभक्ते युगपरिवृत्तेश्चतुर्गतीनां च ।
आदर्शमिव तथा मतिरवैति करणानुयोगं च ॥44।।
अर्थात– प्रथमानुयोग की तरह मननरूप श्रुतज्ञान लोक और अलोक के विभाग युगों के परिवर्तन और चारों गतियों का स्वरूप दर्पण के समान दिखाने वाले करणानुयोगरूप शास्त्र को भी जानता है।
जिस प्रकार सम्यक श्रुतज्ञान प्रथमानुयोग को जानता है, उसी प्रकार करणानुयोग को भी जानता है। करणानुयोग में लोक अलोक का विभाग तथा पञ्चसंग्रह आदि का समावेश होता है। यह करणानुयोग दर्पण के समान है अर्थात् जिस प्रकार दर्पण, मुख आदि के यथार्थ स्वरूप का प्रकाशक होता है उसी प्रकार करणानुयोग भी अपने विषय का प्रकाशक होता है। करणानुयोग, लोक और अलोक के विभाग, युगों के परिवर्तन और चार गतियों के स्वरूप को प्रकाशित करने के लिये दर्पण के समान है। जहाँ तक जीव आदि पदार्थ देखे जाते हैं, उसे लोक कहते हैं। यह लोक तीन सौ तालीस राजू प्रमाण है। इससे विपरीत अनन्त प्रमाण विशिष्ट जो शुद्ध-परद्रव्यों के संसर्ग से रहित आकाश है, वह अलोक कहलाता है। उत्सर्पिणी आदि काल के भेदों को युग कहते हैं। उनका सुषमासुषमा आदि छह कालों में जो परिणमन होता है उसे युग परिवर्तन कहते हैं और नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य तथा देव ये चार गतियाँ हैं करणानुयोग में इन सबका विशद वर्णन रहता है। त्रैलोक्यप्रज्ञप्ति, त्रिलोकसार, जीवकाण्ड, कर्म काण्ड, पखण्डागम आदि ग्रन्थ करणानुयोग के ग्रन्थ कहलाते हैं ।
अनंत सागर
श्रावकाचार ( 50वां दिन)
शनिवार , 19 फरवरी 2022, बांसवाड़ा
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