पद्मपुराण के पर्व 78 कुम्भकर्णादि के जीवन का एक प्रसंग है जो हम सब को प्रेरणा देता है कि कर्म के खेल को समझ कर हमें अपने आप को धर्म के मार्ग पर लगा लेना चाहिए ।
रावण के मरण के बाद जब राम की आज्ञा से कुम्भकर्णादि जो बंदी थे उन्हें भामण्डल राम के पास लेकर आए । उस समय कुम्भकर्णादि राग-द्वेष से रहित हो गए और मुनि जैसी चर्या बना ली और प्रतिज्ञा कर ली कि संसार में कुछ नहीं बस एक धर्म ही सार है जो मनुष्य का सच्चा मित्र,बंधु है यदि मैं इस बंधन से छूट गया तो मुनि बनकर हाथों में आहार ग्रहण करूंगा । कुम्भकर्ण राम से कहता है कि आप धन्य हैं । आपका धैर्य,गंभीरता,बल सब कुछ श्रेष्ठ है । आप ने उसे पराजित किया जिसे कोई भी पराजित नहीं कर सका। लक्ष्मण ने कुम्भकर्णादि से कहा आप पहले जैसे ही भोगों को भोग कर आनंद से रहो। कुम्भकर्ण कहता है विष के समान महा मोह को जन्म देने वाले भोगों की आवश्यकता नहीं है । राम-लक्ष्मण स्वयं बार-बार कह रहे थे कि भोगों का भोग करो, लंका में रहो लेकिन इसके बाद भी कुम्भकर्णादि भोगों से विरक्त ही रहे । कुम्भकर्णादि ने अनंतवीर्य मुनिराज के पास दीक्षा धारण कर ली ।
इस प्रसंग से प्रेरणा लेना कि जीवन में सकंट को दूर करने के लिए मात्र धर्म ही एक उपाय है, ।इसलिए धर्म को जीवन में महत्व देना चाहिए।
अनंत सागर
प्रेरणा (पचासवां भाग)
15 अप्रैल,गुरुवार 2021
भीलूड़ा (राज.)
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