पद्मपुराण में रावण के जीवन का एक प्रसंग आता है। आप सब जानें और कर्म के महत्व को समझें।
रावण की आत्मग्लानि से यह सिद्ध होता है कि रावण अहंकारी तो नही था पर कर्म किसी को छोडता नही है। एक समय की बात है- कर्मों की गति और पूर्व बैरभाव में आकर रावण कैलाश पर्वत पर तप, ध्यान और साधना कर रहे बाली मुनिराज की साधना भंग करने पहुंच गया। उसने पर्वत को अपने हाथ में उठा तो लिया लेकिन मुनिराज के तप के बल से धीरे-धीरे रावण के लिए पहाड़ को उठाए रखना मुश्किल होता गया। रावण को उसी समय अपनी अज्ञानता का अनुभव हुआ और वह पछतावा करने लगा।
रावण को ग्लानि का अनुभव हुआ। वह तुरंत मुनिश्री के चरणों में पहुँचा और उन्हें नमनकर प्रायश्चित के भाव प्रकट किए। रावण कहने लगा-हे मुनिराज आप तो गुणों की खान हो, आप जैसे धैर्यवान, शीलवान, तपस्वी को मेरा प्रणाम है। आप मुझे क्षमा करें, दया करें। जो मैनें आपके साथ किया है वह पापबन्ध का कार्य है, दु:ख देने वाला है। आपका अशीर्वाद ही मुझे इस पापबन्ध से दूर कर सकता है। मैं अपनी स्वयं की निंदा करता हूँ।
मैं पापी हूँ, दुष्ट हूँ, अज्ञानी हूँ- इस प्रकार बोलते हुए रावण ने मुनिश्री की तीन प्रदक्षिणा कर उनसे क्षमायाचना की।
कर्म के उदय से रावण ने गलती की पर तत्क्षण अपनी भूल का अहसास कर उसे स्वीकार किया और क्षमायाचना भी की। अब आप ही बताएं रावण अहंकारी होता तो क्या अपनी भूल स्वीकारता।
अनंत सागर
कर्म सिद्धांत
चवालीसवां भाग
2 मार्च 2021, मंगलवार, भीलूड़ा (राजस्थान)
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