कोरोना महामारी ने ऐसी स्थितियां बना दी है कि अब सब कहने लगे हैं कि भगवान बहुत हो गया, अब रोक दो आप, देखा नहीं जा रहा है और जब आप ऐसा कहते हैं तो दूसरी ओर से आवाज आती है….कर्मों का फल है। जब कोई किसी गलत आरोप में फंस जाता है तो कहता है कि मेरा नाम तो जबरन आ गया, मैं तो वहां था ही नहीं, या मैंने तो ऐसा कुछ किया ही नहीं, तो भी… दूसरी ओर से आवाज आती है….. कर्म का फल है। मेरा बेटा कम उम्र में चल बसा … मुझे नौकरी नही मिलती, व्यापार नहीं चलता …क्यों, क्योंकि यह कर्मफल है। इसी तरह जब कुछ अच्छा होता है जैसे अच्छी नौकरी मिल जाए, तो …. दूसरी ओर से आवाज आती है कर्म का फल है। आज मेरा सम्मान है …. दूसरी ओर से आवाज आती है कर्म का फल है।
अर्थात कह सकते हैं कि मनुष्य के साथ जो भी हो चाहे वह अच्छा हो या बुरा, उसका कारण एक ही है… कर्मफल। अब प्रश्न हो सकता है वह दूसरी आवाज आती कहां से है? तो इस का उत्तर है कि यह आवाज दो जगह से आ सकती है-एक तो वह जो तुम्हारे आस- पास है या घट रहा है, वह तुम्हें बताएगा और दूसरा तुम्हारी अंतरात्मा से आवाज आएगी जो मात्र तुम्हें ही सुनाई देगी।
आखिर कर्म है क्या???
तो आओ समझते हैं कि कर्म क्या हैं। जो आत्मा के स्वभाव को बिगाड़ देता है उसे कर्म कहते हैं। वैसे तो सामान्य तौर पर कर्म एक प्रकार का ही है, लेकिन पुण्य, पाप के भेद से दो प्रकार का हो जाता है। मनुष्य सकारात्मक कार्य करे, सोचे और भाव रखे तो वह शुभ कर्म है, जिसे पुण्य कर्म भी कहते हैं। मनुष्य यदि नकारात्मक कार्य करे, सोचे या भाव रखे तो वह अशुभ कर्म है जिसे पाप कर्म भी कहते हैं।
इसे उदाहरण से समझते हैं- किसी ने आप को गाली दी और जवाब में आपने उसे गाली दी, मारा या और कोई प्रतिक्रिया की तो उस समय जो आप के अन्दर की मानवता छूटी और भाव बिगडे़ वही अशुभ कर्म है। आप ने किसी को संकट से निकला, सहयोग किया, दया की और आप के अन्दर अहंकार का भाव नही आया तो वह शुभ कर्म है।
एक पंक्ति में कर्म की परिभाषा समझनी है तो यह है कि जो मनुष्य की अन्दर की मानवता भुला दे वह अशुभ कर्म है और जो मनुष्य की मानवता को जाग्रत कर दे वह शुभ कर्म है।
जैन शास्त्रों में कर्म के तीन, चार, आठ प्रकार के भेद बताएं है और कर्मों के भेद भावों की अप्रेक्षा से संख्यात, असंख्यात और अनंत प्रकार के भी बताए हैं, इसीलिए तो हम देखते हैं कि जितने मनुष्य (प्राणी) उतने ही प्रकार के दुख के कारण और उतने ही प्रकार के सुख के कारण। कहने का मतलब है हर मनुष्य के दुख और सुख का कारण अलग-अलग है।
एक बात और है कि जब मनुष्य शुभ- अशुभ दोनों प्रकार के कार्य करना छोड़ देता है तब उसे न पुण्य का बंध होता है और ना पाप का बंध होता है। अब प्रश्न हो सकता कि फिर मनुष्य क्या करता है? तो उत्तर है कि वह मात्र आत्म ध्यान करता है जिससे शुभ-अशुभ दोनों प्रकार के कर्म नाश को प्राप्त हो जाते हैं और आत्मा कर्म रहित होकर परमात्मा बन जाती है।
मनुष्य अपने-अपने कर्म का फल भोगता है
कर्म तो दिखाई नही देता, पर कर्म का फल हम सब को सुख-दुख के रूप में दिखाई दे जाता है। इससे यह तो मानना ही होगा की कर्म होते हैं। अगर कर्म को नहीं मानेंगे तो प्रश्न यह होगा कि जो मनुष्य के साथ अच्छा – बुरा हो रहा है वह कौन कर रहा है? अगर यह कहें कि भगवान कर रहा है तो प्रश्न होगा की भगवान भेद भाव क्यों करता है? जो भेद भाव करे वह भगवान कैसे हो सकता है? ऐसे न जाने कितने सवाल ओर उठ सकते हैं। जिनका कोई अंत ही नहीं होगा, इसलिए यह सिद्ध है कि मनुष्य अपने-अपने कर्म का फल भोगता है।
कर्म के पीछे की दृष्टि सकारात्मक होनी चाहिए
एक महत्वपूर्ण बात और है कि हर मनुष्य की आत्मा भगवान है बस कर्मों के कारण उस आत्मा में भगवान दिखाई नही देते है, या कहें कि अनुभव में नही आते हैं। आत्मा में परमात्मा का अनुभव करने के लिए पहले शुभ कार्य करना होगा और अशुभ कार्य का त्याग करना होगा। सकारात्मक दृष्टि के साथ जो कार्य किया जाए वह शुभ कार्य और और नकारत्मक दृष्टि के साथ किया जाए तो वह अशुभ कार्य है। फिर चाहे वह भगवान की पूजा, आराधना हो या किसी दुखी मनुष्य, प्राणी की सेवा का काम।
हम जो भगवान की प्रतिमा की आराधना करते है, दुखी की सेवा करते है वह पुराने अशुभ कर्म नाश और वर्तमान में शुभ कर्म के बन्ध के लिए करते हैं। लालच, स्वार्थ आदि से किया गया सकारात्मक कार्य भी अशुभ है अर्थात पुण्य का कारण नही हो सकता है। काम कैसा भी हो उसके पीछे दृष्टि सकारात्मक होनी चाहिए। हर समय प्राणी कोई ना कोई कार्य करता या सोचता ही है। इसका मतलब है कि संसारी मनुष्य हर समय कर्म का बन्ध करता ही है। जिस समय प्राणी मात्र के जैसे भाव, विचार, क्रिया होगी उस समय वैसा ही कर्म बन्ध हो जाता है।
एक विषय और ध्यान रखने की आवश्यकता है- आत्मा के साथ उन्हीं कर्मो का बन्ध होता है जिन कर्मो के साथ कषाय और योग होते हैं। क्रोध, मान, माया, लोभ यह चार कषाय हैं और मन, वचन, काया की चंचलता का नाम योग है। कहने का मतलब है कि हम जो कार्य कर रहे हैं उस कार्य में कषाय और योग है और कषाय या योग जितना अधिक होगा उतना अधिक दुख देने वाला कर्म बंध होगा। जिस कर्म के साथ कषाय और योग नही है वह कर्म आता तो है पर उसका कर्म बन्ध नहीं होता है। इसे उदाहरण से समझते हैं- आप को किसी ने गाली दी, भला-बुरा कहा और आप में जवाब में कुछ नहीं कहा और मन में यह सोचा की यह व्यक्ति क्यों मेरे कारण अशुभ कर्म का बंध कर रहा है। इसे सद्बुद्धि आए। यह विचार करते ही आप को शुभ कर्म का बन्ध होगा और जो पहले अशुभ कर्म का बन्ध किया हुआ था जिसके कारण उस व्यक्ति ने आपको गाली दी थी उस अशुभ कर्म का नाश अवश्य होगा। लेकिन सकारात्मक विचार लाने के बजाए ऐसी स्थिति में आपने भी उसे उसी तरह गाली दी या भला-बुरा कहा तो समझ लेना आप ने एक और अशुभ कर्म का और बन्ध कर लिया है। शुभ कार्य से धीरे-धीरे अशुभ कर्म जीवन से निकल जाते हैं और एक दिन वह आता है कि जीवन में अशुभ कर्म नहीं बचते। मात्र शुभ कर्म ही जीवन में रह जाते हैं। फिर धीरे-धीरे शुभ कार्य भी छूटते जाते हैं और यह आत्मा कर्मरहित होकर परमात्मा बन जाती है।
हम सब में परमात्मा है
कर्म के इस खेल में यह समझ लेना कि संसार में सुख शुभ क्रिया से और शाश्वत सुख शुभ-अशुभ दोनों क्रिया से रहित होने पर ही मिलता है। तो आप समझ लेना हम सब में परमात्मा है पर उस परमात्मा को प्रकट करने के लिए कर्मों का नाश करना होगा। उसके लिए क्रमशः पहले अशुभ कर्मो का नाश करना होगा, फिर शुभ कर्मों का नाश करना होगा। उसके बाद जो अवस्था होगी वह कर्मरहित होगी जो तुम्हारी अपनी है।
अंत में इतना समझ लेना कि अशुभ कर्मो से बचना है तो वर्तमान के बारे में ही सोचना। भूतकाल और भविष्य की मत सोचना। वर्तमान में जो भी, जैसी भी परिस्थिति हो, उसमें रहने की कला सीख लेनी चाहिए। इससे अशुभ कर्मो और उसके पाप के फल से बच सकते हैं। वैसे भी सोचने की बात यह है कि जब हमें 6 सेकेंड पहले किये हुए कर्मा के फल और 6 सेकेंड बाद स्थिति का ही पता नहीं तो फिर 60 साल की क्यों सोचें।
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