मुनि पूज्य सागर की डायरी से
मौन साधना का 31वां दिन। 22 सालों में मुझे जो अनुभव हुआ, वहीं आज चिंतन में आया। जब एक-दूसरे से विश्वास टूटता है तो वह व्यक्ति को कमजोर कर देता है। व्यक्ति की इंसानियत, उसके आचरण, विचार और कार्यशैली पर प्रश्नचिन्ह लग जाता है। यह सत्य है कि जीवन में सुख और शांति का अनुभव भी विश्वास से ही होता है। विश्वास ही जीवन में संबल देता है। गृहस्थ विश्वास की नींव पर अपना परिवार खड़ा करता है। व्यक्ति व्यापार भी एक-दूसरे के विश्वास पर ही शुरू करता है। इसी तरह संत और गुरू भी विश्वासरूपी कड़ी से बंधे रहते हैं।
जब इन सबके बीच विश्वास टूटता है तो इससे जुड़ा व्यक्ति भी टूट जाता है और वह फिर अपने आपको कभी जोड़ नहीं पाता है। उसके जहन में हजारों प्रश्न खड़े हो जाते हैं। व्यक्ति का एक-दूसरे से जब विश्वास टूटता है तब उसकी अपेक्षा के अनुरूप कुछ मिला न हो या फिर कुछ हुआ न हो, ऐसे व्यक्ति की सोचने की शक्ति समाप्त हो जाती है। उसके सपने भी उसे बिखरे नजर आने लगते हैं। उसके जहन में नफरत पनपने लगती है। वह पुरुषार्थ करने से भी डरने लगता है और जहन में बदले की भावना लेकर जीने लगता है।
सत्य तो यही है कि इस संसार में विश्वास योग्य कोई नहीं है। सब एक-दूसरे से निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए जुड़ते हैं। जब तक स्वार्थसिद्ध होता है तब तक विश्वास बना रहता है और जिस दिन स्वार्थ समाप्त हो जाता है, उस दिन एक-दूसरे के कार्य में शंकाएं पैदा होना शरू हो जाती है और धीरे-धीरे जहन में से विश्वास ही समाप्त हो जाता है। इसके बाद एक-दूसरे को शंकाओं की नजर से देखना शुरू कर देते हैं। विश्वास करने योग्य वही होता है जिसने कभी किसी से कुछ लिया नहीं हो और न ही कभी किसी से कोई अपेक्षा रखी हो।
मैं अपने अनुभवों के आधार पर कहता हूं कि धर्म ही विश्वास करने योग्य है। धर्म कभी किसी का विश्वास नहीं तोड़ता, बल्कि धर्म से व्यक्ति ही विश्वास तोड़ता है। धर्म से सम्बंध टूटते ही व्यक्ति लक्ष्य से भटक जाता है। अपने ईष्टदेवता तक को बदलने लगता है आज कोई और, तो कल कोई और, कोई कल और कोई। वह नकारात्मक सोच से घिर जाता है।
शनिवार, 4 सितम्बर, 2021 भीलूड़ा
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