न तो धन के बल पर, न रूप के बल पर और न ही पद आदि के बल पर इस संसार में सुख, शांति और समृद्धि मिलती है। न ही स्वर्ग मिलता है और न ही ही मोक्ष मिल सकता है, बल्कि यह सब सम्यग्दर्शन धर्म के बल पर मिलती है। फिर चाहे वह सम्यग्दर्शन तिर्यंच को हो या मनुष्य को हो । प्राणी मात्र को उसके व्यवहार,आचरण, श्रद्धा के बल पर ही फल मिलता है । किसमे कितनी योग्यता है, यह हमें नहीं पता है, इसलिए इस संसार में हमें किसी भी प्राणी का अपमान नही करना चाहिए और न ही अनादर करना चाहिए। हर प्राणी से प्रेम, आदर, वात्सल्य, स्नेह आदि से बात करनी चाहिए । यह गुण भी सम्यग्दर्शन होने में कारण है और सम्यग्दर्शन की बाहरी पहचान भी है ।
आचार्य समन्तभ्रद स्वामी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में सम्यग्दर्शन का महत्व बताते हुए कहा है कि …
श्वापि देवोऽपि देवः श्वा, जायते धर्मकिल्विषात् ।
काऽपिनाम भवेदन्या, सम्पद्धर्माच्छरीरिणाम् ॥29॥
अर्थात- सम्यग्दर्शनादि रूप धर्म की महिमा से कुत्ता भी देव हो जाता है और मिथ्यादर्शनादि अधर्म की महिमा से देव भी कुत्ता हो जाता है। रत्नत्रय रूप धर्म के प्रभाव से प्राणियों को ऐसी सम्पत्ति की प्राप्ति होती है जो वचनों के द्वारा कही नहीं जा सकती तथा अप्राप्तपूर्व होती है।
प्रथमानुयोग में कथा आती है कि जीवंधर स्वामी के मुख से पंच नमस्कार मन्त्र सुनकर कुत्ता सुदर्शन यक्ष बन गया। भगवान् पार्श्वनाथ के मुखारविन्द से पंच नमस्कार मन्त्र सुनकर नाग नागिनी धरणेन्द्र पद्मावती पद को प्राप्त हो गये और सेठ के मुख से नमस्कार मन्त्र सुनकर एक बैल भी देव पर्याय को प्राप्त हो गया। इस प्रकार धर्म की महिमा अनुपम है। यहाँ पंचनमस्कार मन्त्र की श्रद्धा को ही सम्यग्दर्शन रूप धर्म मानकर उसकी महिमा बतलाई गई है। करणानुयोग की अपेक्षा जिसके सम्यग्दर्शन होता है उसकी भवनन्त्रिक में उत्पत्ति नहीं होती। इसी प्रकार वर्तमान आयु के छह माह शेष रहने पर जब देवों की माला मुरझाती है, तब मिथ्यादृष्टि देव आर्त्तध्यान के कारण तिर्यञ्च आयु का बन्ध कर आगामी पर्याय में निर्यज्य होते हैं। भवनविक तथा दूसरे स्वर्ग तक के देव तो एकेन्द्रिय तक हो जाते हैं और बारहवें स्वर्ग तक के पंचेन्द्रिय तिर्यअंच हो सकते हैं। इस प्रकार धर्म की महिमा जानकर उसे प्राप्त करना चाहिए और अधर्म का त्याग करना चाहिए ।
अनंत सागर
श्रावकाचार ( 35 वां दिन)
शुक्रवार, 4 फरवरी 2022, बांसवाड़ा
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