जो लोग यह कहते है कि युवा अवस्था तो घूमने फिरने और मौज-मस्ती की होती है। अभी धर्म और काम करने का समय नही है, उन्हें जैन धर्म और भारतीय इतिहास के पन्नों को पलटना चाहिए। आज हमारी युवा पीढी को हमारा इतिहास पता नही इसलिए यह सोच और विचार उनके मन- मस्तिष्क में आ जाते है। इतिहास के पन्नों में हमें एक ऐसे सम्राट का वर्णन मिलता है जिसने 15 वर्ष की आयु तक राजोचित विद्याएँ सीखीं। 16वें वर्ष में वह युवराज बना। 24वें वर्ष में उसका राज्याभिषेक हुआ। राज्याभिषेक के 2-3 वर्ष बाद युद्ध करना शुरू किया और हर जगह विजय हासिल की। जिसने धर्म ग्रंथो के अनुसार अपने बुद्धि, शक्ति, धन का उपयोग जैन धर्म के प्रचार-प्रसार में किया और स्वयं को संयमित रखा। हम बात कर रहे हैं साम्राट खारवेल की जो जैन धर्म का अनुयायी था।
खारवेल (193 ईसापूर्व) कलिंग (वर्तमान ओडिशा) में राज करने वाले महामेघवाहन वंश के तृतीय एवं सबसे महान तथा प्रख्यात सम्राट थे। खारवेल का जन्म ईसा पूर्व 190 के लगभग हुआ था। पन्द्रह वर्ष की आयु में उन्हें युवराज का पद प्राप्त हुआ और चैबीस वर्ष की आयु में राज्याभिषेक हुआ। दादा क्षेमराज के समक्ष ही उनके पिता वृद्धिराज की मृत्यु हो गई थी।
सम्राट् खारवेल का विश्वश्रुत शिलालेख वर्तमान ओडिशा राज्य के पुरी जिले के भुवनेश्वर से तीन मील दूर स्थित खण्डगिरि पर्वत के उदयगिरि नामक उत्तरी भाग पर बने हुए हाथी गुम्फा नामक विशाल एवं प्राचीन गुफा मंदिर के मुख एवं छत पर सत्रह पंक्तियों में लगभग 84 फीट के विस्तार में उत्कीर्ण है। लेख के प्रारम्भ में अरिहंतों एवं सर्व सिद्धों को नमस्कार किया गया है। शिलालेख के अनुसार राज्यकाल के तेरहवें वर्ष में इस राजर्षि ने सुपर्वत-विजय चक्र (प्रान्त ) में स्थित कुमारी पर्वत पर अपने राजभक्त प्रजाजनों द्वारा पूजे जाने के लिये उन अरिहंतों की पुण्य स्मृति में निषधकाएँ निर्माण करायी थीं जो निर्वाण लाभ कर चुके थे। तपोधन मुनियों के आवास हेतु गुफायें बनवाई। स्वयं ने श्रावक के व्रत ग्रहण किये और अर्हन्मंदिर के निकट उन्होंने एक विशाल मनोरम सभा मण्डप (अर्कासन गुम्फा) बनवाई, जिसके मध्य में एक बहुमूल्य रत्नजड़ित मानस्तम्भ स्थापित कराया। सम्राट ने ही महामुनि सम्मेलन तथा द्वादशांग श्रुत का पाठ कराया था।
इस इतिहास को पढ़ने के बाद अपनी सोच-विचार को बदलकर अपनी बुद्धि, शक्ति और धन का उपयोग कहां करना है, यह आप को स्वयं विचार करना चाहिए।
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