कब तक अपने आप को पहचान पाऊंगा?
मौन साधन का पहला दिन। जिस कमरे में भगवान विराजमान थे, मैं वहां सुबह 4 बजे से मंत्रों का जाप और पाठ कर रहा था। जब दूसरे काले कमरे में चिन्तन-ध्यान करने गया तो वहां पर न लाइट जल रही थी और न बाहर की कोई रोशनी आ रही थी। बस एक लैम्प जल रहा था। मुझे लग रहा था जैसे मैं कही और ही आ गया हूं, एक ऐसी अनजान जगह जहां पर मैं पहले कभी नही आया हूँ। मैं अपने आप को वहां पहचानने की कोशिश करने लगा कि मैं कौन हूँ। कुछ समय बाद मेरे मन-मस्तिष्क में 20 साल पुरानी स्मृतियां आने लगीं। जो इस तरह आ रही थीं जैसे जल के प्रवाह में बहा जा रहा हो। कोई बात या स्मृति अधिक समय तक रुक ही नही रही थी। जो कुछ चल रहा था उसमें कुछ सुख या कुछ दुख की बातें थी। कुछ लोग मुझे अच्छी बातों के लिए तो कुछ बुरी बात के लिए याद आ रहे थे। अपना काम निकलने के लिए एक दूसरे की तारीफ की यादें ध्यान आ रहीं थी। फिर भी मैं अपने आप को नहीं पहचान पा रहा था। सब कुछ अनजान सा लग रहा था। जैसे मैं जाने कहा आ गया हूं। कुछ देर बाद मात्र इतना सा ध्यान आया कि इंसान की पहचान तो उसके चरित्र से होती है, उसकी आदतों से होती है। बाकी बचा धन, रूप, ज्ञान तो चला जाता है। अभी तक भी मैं अपने आप को नहीं पहचान पाया बस यही सोचते रहा की आखिर मैं हूँ कौन और कहां आ गया हूं। कब तक अपने आप को पहचान पाऊंगा? बस इसी चिन्ता में था कि ध्यान-चिन्ता से बाहर आकर अपनी बाकी क्रियाओं में लग गया।
—
Give a Reply