नीति से दिग्विजय हुआ, कभी परस्त्री गमन नहीं स्वीकारा
लेखक- अंतर्मुखी मुनि श्री पूज्य सागर महाराज
मैं सदा सात्विक विचारों वाला, धर्म और नीति का पालन करने वाला… पर विपरीत कर्मों की गति से मति बिगड़ी और एक ऐसी गलती कर बैठा जिसके कारण आज नरक भोग रहा हूँ। आपको आश्चर्य होगा कि मैंने कभी मुझ पर मोहित होने वाली परस्त्री को भी गलत राह जाने से रोका था और उसे चारित्र का महत्व बताया था।
बात उस समय की है जब मैं दिग्विजय के लिए निकला था। दुर्लन्ध्यनगर नामक राज्य पर चढ़ाई करना थी। वहाँ के राजा नलकूबर पर विजय प्राप्त करना मुश्किल था क्योंकि उस किले की परिधि पर देवकवच था, जिसे तोड़ने की सिद्धि मुझे प्राप्त नहीं थी। मैं और भाई विभीषण के साथ समस्त सलाहकार इस कवच को भेदने का उपाय सोच रहे थे। तभी नलकूबर की रानी उपरम्भा कि सखी विचित्रमाला मेरे पास आई, उसने कहा कि हमारी रानी उपरम्भा आप पर मोहित है और आपसे मिलने को व्याकुल है। यह सुनकर मेरी आँखें शर्म से झुक गई । मैंने विचित्रमाला को कहा कि ऐसा अधर्म करने की उपरंभा ने सोची भी वैâसे और तुम्हें ऐसा प्रस्ताव मुझे तक लाते लज्जा नहीं आई। स्त्री का आभूषण उसकी मर्यादा और चरित्र ही है… यह वचन कहकर तुम क्यों पाप का बंध कर कुसंस्कारों का बीजारोपण कर रही हो। तुम जाओ, और अपनी रानी को कह दो कि मैं ऐसा अधर्म नहीं कर सकता। उसके जाने के बाद जब मैंने विभीषण से सारी घटना कही तो उसने कहा… भ्राता, आप दिग्विजय पर हो, अभी आपका धर्म और नीति कहती है कि साम, दाम, दण्ड – भेद आपको युद्ध में विजय प्राप्त करना चाहिए। आप उपरंभा से झूठ बोलकर किले में, महल में प्रवेश का मार्ग जान सकते हो। विभीषण की सलाह पर मैंने विचित्रमाला द्वारा उपरंभा को मिलने का संदेश भेजा और उपरंभा के आने पर उससे कहा कि आपकी इच्छा में आपके महल में ही पूरी कर सकता हूँ। उपरंभा ने वासना के वशीभूत मुझे वह विधि बता दी और हमने देवकवच को तोड़ राजा नलवूâबर को बंदी बना लिया। विजय प्राप्त करते ही सुदर्शन चक्र उत्पन्न हो गया। उपरंभा ने अपनी इच्छा पुन: कही। तब मैनें उन्हें समझाया कि… देवी! यह पापकर्म है। आपने मुझे जो विद्या दी उसके कारण आप मेरी गुरु हैं और वैसे भी धर्म कहता है कि परस्त्री सेवन तो क्या उसका विचार मात्र भी जीव के लोक और परलोक दोनों बिगाड़ता है और व्यक्ति निन्दा का पात्र बन दु:ख भोगता है। मैं नीति और धर्ममार्ग का राही हूँ ऐसा दुष्कृत्य संभव नहीं। इसके बाद मैं नलकूबर और उपरंभा को वहीं छोड़ हम सेना सहित दिग्विजय के लिए आगे की ओर चल दिए। सब कर्मों का खेल है। आज वो मै ही हूँ जो बुराई का पुतला मान जलाया जा रहा हूँ… पर क्या आप में से कोई सच्चरित्र पुरुष है जो किसी स्त्री के स्वयं आमंत्रण पर भी उसके साथ रमण ना करे… फिर आप सा तामसिक मुझे जलाने की पात्रता वैâसे रख सकता है, जरा सोचिए तो सही?
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