मुनि पूज्य सागर की डायरी से
मौन साधना का 23वां दिन। इंसान के जन्म लेने के साथ ही उसके कुछ अपने लोग उससे अप्रेक्षा रखना शुरू कर देते हैं। जब वह समझदार हो जाता है तब उसकी अपनी इच्छा होती है। यह सब कुछ दिन नहीं, जन्म से लेकर मरण तक चलता ही रहता हैं। यह इच्छाएं और अप्रेक्षा एक, दो, तीन नहीं बल्कि अनेक होती हैं जिसकी गणना नहीं की जा सकती। जिसकी गणना नहीं की जा सकती तो उसका अनन्त कैसे हो सकता है? साथ ही, यह हर समय एक सी नहीं होती, बदलती रहती है। कभी समय के अनुसार तो कभी मजबूरी में, कभी परिस्थितियों के कारण तो कभी कर्म के कारण। ऐसी स्थिति में इंसान का कोई लक्ष्य ही नहीं रहता है और लक्ष्य हो भी तो वह उससे भटक जाता है।
लक्ष्यहीन इंसान जीता तो है पर सुख,शांति से नहीं जी सकता है। इंसान इच्छा और अप्रेक्षा के जाल फंस जाता है। मकड़ी स्वयं अपना जाल बुनती है और उसमें फंस जाती है। उसी तरह इंसान भी अपने इच्छाओं और अप्रेक्षाओं के जाल में स्वयं फंसता ही चला जाता है। जब तक वह यह सब समझ पाता है, तब तक उसके बाहर निकने के सारे रास्ते बंद हो जाते हैं। जैसे मकड़ी जाल में ही दम तोड़ देती है, उसी प्रकार इंसान भी इच्छाओं और अप्रेक्षा में रहते हुए मरण को प्राप्त कर जाता है, पर फिर भी उसकी इच्छाएं और अप्रेक्षा पूरी नहींं होती हैं।
इच्छा और अप्रेक्षा रखना गलत नहीं है- पर किस समय, किस उम्र में किससे क्या अप्रेक्षा रखना और किससे क्या इच्छा रखना? यह जानना जरूरी है। इच्छा और अप्रेक्षा की मर्यादा टूट जाती है तब एक दूसरे के प्रति सम्मान का भाव नहीं रहता है। एक- दूसरे की भावनाओं को लोग समझ नहीं पाते हैं। इंसान अपनी प्रतिभाओं को प्रकट नहीं कर पाता है। वास्तविकता तो यह है कि इच्छाओं और अप्रेक्षाओं के बजाए इंसान को अपने कर्म पर ध्यान देते हुए दया,करुणा, वात्सल्य, सकारात्मक सोच के साथ अपनी शक्ति को पहचानते हुए अपने आपको इच्छाओं और अप्रेक्षाओं से मुक्त कर पुरुषार्थ पर जोड़ देना चाहिए और अपनी शक्ति तथा सामर्थ के साथ पुण्यकर्म करते रहना चाहिए।
शुक्रवार, 27अगस्त 2021, भीलूड़ा
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