अन्तर्मुखी मुनि पूज्य सागर महाराज 48 दिन की मौन साधना सम्पन्न, दैनिक भास्कर से सांझा किए अपने अनुभव
12 साल का संकल्प पूर्ण हुआ है, अगले साल भी होगी मौन साधना, लेकिन क्या होगा प्रारुप, यह तय नहीं है
डूंगरपुर। भीलूड़ा में चातुर्मास आचार्य अनुभव सागर महाराज के प्रथम शिष्य अन्तर्मुखी मुनि पूज्य सागर महाराज 48 दिन की मौन साधना के साथ जाप-अनुष्ठान में लगे रहे। मुनिश्री का मौन धारण 5 अगस्त से शुरू होकर 21 सितम्बर तक चला। उनका कहना है कि आज मैं जिस मुकाम पर हूं, उसका पहला श्रेय माता- पिता और दूसरा श्रेय गुरुजनों को है। आचार्य वर्धमान सागर, आचार्य अभिनंदन सागर, आचार्य अनुभव सागर और जीवन में धर्म का बीजारोपण करने वाली मां आर्यिका वर्धित माता जी के वात्सल्य गुणों के कारण मैं धर्म के मार्ग पर हूं। मौन साधन में 2 लाख जाप और 50 से अधिक बार हवन में आहुति दी गई। उन्होंने यह भी कहा कि मौन साधना आचार्य श्री सुंदर सागर महाराज और आचार्य अनुभव सागर महाराज के आशीर्वाद से सम्पन्न हो सकी। अन्तर्मुखी मुनि के दैनिक भास्कर संवाददाता सिद्धार्थ शाह से बातचीत के प्रमुख अंश।
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सवाल -डेढ़ माह से ज्यादा अर्थात 48 दिन की मौन साधना का विचार कैसे मन में आया?
जवाब- मौन साधना का विचार श्रवणबेलगोला के कर्मयोगी स्वस्तिश्री चारुकीर्ति भट्टारक स्वामी को देखकर मिली। उन्हें देखकर आनन्द की जो अनुभति हुई, वह शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकते। मौन का क्रम 2008 में शुरू किया। उस समय मैं मुनि नहीं, क्षुल्लक अवस्था में था। उस समय नाम अतुल्य सागर था। मुझे यह समझ में तो आ गया कि जैसी संगति करेंगे, वैसे ही बन जाएंगे।
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सवाल- वह कौन सी वजह थी जिससे आपने मौन साधना का व्रत लिया। अब तक कुल कितने दिन की मौन साधना कर चुके हैं?
जवाब- प्रेरणा तो स्वामी जी से मिली। पर एक बार 2007 में किसी से धर्म चर्चा को लेकर विवाद बढ़ता ही जा रहा था। कुछ समय बाद मैं मौन हो गया और किसी बात का जवाब नहीं दिया तो मामला शांत हो गया। उस दिन मुझे लगा कि विवादों से दूर रहना हो तो मौन कर लेना। मैंने मौन रखा तो समझ में आया कि मौन से धर्म को सही तरीके से समझा जा सकता है। मौन साधन करते 12 वर्ष हो गए हैं। इनमें समय की अवधि और साधना करने के तरीके में अंतर जरूर रहा है।
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सवाल – क्या आप यह मानते हैं कि मौन साधना से मन के रुग्ण विचार दूर होकर ध्यान केंद्रित करने में मदद करते हैं?
जवाब- हां, इसमे कोईं संदेह होना भी नहीं चाहिए। मौन से मन की ही नहीं, बल्कि वचन, काय से सम्बंधित अशुभ क्रिया भी कम हो जाती है और रुग्ण विचार भी दूर होते हैं। हम जितना मौन की साधना में आगे बढ़ते हैं, उतना हम निविकल्प होते जाते हैं। अशुभ कर्म से दूर होने के लिए मौन से अच्छा कोई साधना है ही नहीं। आत्मचिंतन का वास्तविक आनंद मौन में ही है।
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सवाल -चातुर्मास में मौन साधना का क्या उद्देश्य, जबकि यह समय प्रवचन आदि करने का होता है?
जवाब- वास्तव में चातुर्मास ही साधना का समय है। पहले मुनि तो चार चार महीने का उपवास लेकर मौन के साथ ध्यान पर बैठ जाते थे। शास्त्र के अनुसार चातुर्मास में इतने समय तक एक ही स्थान पर रहते हैं। आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने साधु का स्वरूप बताते हुए कहा है कि जो विषयों की आशा से रहित, आरम्भ -परिग्रह से रहित और ज्ञान, ध्यान और तप में लीन रहना साधु की चर्या है। इसमें प्रवचन तो कहीं आता ही नहीं है। पर धर्म प्रभावना के लिए यह सब जरूरी है। धर्म प्रभावना से पहले आत्म प्रभावना जरूरी है।
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सवाल -मन में आने वाले विचारों पर रोक संभव नहीं, ऐसे में क्या राजनीतिक और सामाजिक विचार भी मन में अपना ताना-बाना फैलाते हैं?
जवाब- असंभव तो कुछ भी नहीं है। पर हां, इस काल मे विचारों पर रोक सम्भव नहीं है। यह सही है कि कई विचार आए, उसमें राजनीतिक और सामाजिक विचार भी थे। जब तक पूर्ण ध्यानावस्था में नहीं जाते हैं, तब तक संसार की हर बातों का ध्यान आएगा। उन्हीं बातों का ध्यान आएगा जिनसे हमारा संपर्क है। संसार के संपर्क से तोड़ने और आत्मा से संपर्क जोड़ने के लिए ही तो मौन के साथ ध्यान किया जाता है। संपूर्ण ध्यानावस्था बिना मुनि बने और उसमें भी जब मुनि आहार, विहार, निहार से रहित होकर बैठता है, 7-8 गुणस्थान में पहुंचता है तब वास्तविक ध्यान होता है। उसके पहले तो मात्र ध्यान का अभ्यास है। मौन से मन आदि की चंचलता दूर की जा सकती है।
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सवाल -क्या अगले वर्ष भी चातुर्मास में ही मौन साधना करेंगे?
जवाब- 12 साल का संकल्प तो पूर्ण हुआ है। अगले साल मौन तो करेंगे, पर उसका प्रारूप क्या होगा, यह अभी नहीं कह सकते हैं। गुरुदेव से वार्ता कर इस पर विचार करेंगे कि और किस प्रकार मौन साधना को मजबूत कर सकते हैं।
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सवाल -क्या मौन साधना से मनुष्य परमपद को प्राप्त कर सकता है जो मानव जीवन का अंतिम उत्कर्ष है?
जवाब – मौन से ही परमपद की प्राप्ति संभव है। मौन में व्यक्ति अधिक समय तक दूसरों के बारे में नहीं सोच सकता है। धीरे- धीरे वह अपने लिए सोचना शुरू कर देता है और मौन में रहने से हमें अपनी गलती का अनुभव भी जल्दी होता है। पर, मौन के साथ धार्मिक जानकारी और सकारात्मक सोच का होना आवश्यक है, तभी मौन साधना का वास्तविक आनंद आता है। जितने भी तीर्थंकर हुए हैं या अन्य जीव परमपद को प्राप्त किए हैं, वह सब मौन और ध्यान के माध्यम से किए हैं।
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सवाल -क्या राजनीतिक नेताओं को मौन साधना के पथ पर अग्रसर होना चाहिए ताकि राजनीतिक कीचड़ की उछाल पर रोक लगे?
जवाब- सच्चा राजनीतिक नेता वही है जो मौन पूर्वक कार्य करता हो। आज नेता मौन नहीं हैं, इसलिए तो विवाद हो रहे हैं। नेता देश का प्रतिनिधित्व करते हैं और पूरा देश उनके काम से प्रसन्न हो, यह संभव भी नहीं है। अगर वह मौन रहे तो काम होगा, विवाद नहीं। राजनीति में मौन इसलिए जरूरी है क्योंकि इनसे विकास के काम तो रुक जाते हैं और व्यक्तिगत एक दूसरे पर कीचड़ उछलते हैं जो राजनेताओं को और क्रोधी और एक दूसरे को नीचा दिखाने में लगे रहते हैं। जब एक मां- बाप की संतान के एक जैसे विचार नहीं होते हैं तो सब के विचार एक कैसे हो सकते हैं? यही सोचकर मौन रहना चाहिए।
(जैसा मुनि श्री ने भास्कर रिपोर्टर सिद्धार्थ शाह को बताया )
साभार – दैनिक भास्कर डूंगरपुर में प्रकाशित
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