संसारी भव्य आत्मा अर्थात सकारात्मक सोच वाली आत्म अपनी आत्म-साधना से स्वयं की आत्मा को परमात्मा बना लेती है। आत्मा को परमात्मा बनने के लिए संसारी भव्य आत्मा उपादान (अन्तरङ्ग) कारण और मनुष्य भव, उच्च कुल, कर्मभूमि, दु:षमा-सुषमा काल, शुक्ल-ध्यान स्वरूप भाव आदि यह निमित्त-कारण (ब्राह्य) कारण होना आवश्यक है। इन सबकी प्राप्ति कर्मो के संवर (रोकना) और निर्जरा (नाश) से संभव है। इष्टोपदेश में आचार्य पूज्य पाद ने उदाहरण देते हुए यही बात कही है।
योग्योपादानयोगेन, दृषद: स्वर्णता मता द्रव्यादिस्वादिसंपत्तावात्मनोऽप्यात्मता मता ॥२॥
योग्य उपादान के मिलने से जैसे स्वर्ण पाषाण को स्वर्णपना प्रकट होना माना गया है, उसी तरह सुद्रव्य, ससुक्षेत्र आदि कारण रूप साम्रगी के मिल जाने पर संसारी आत्मा को भी शुद्धात्मा स्वरूप की प्राप्ति होना माना गया है। कहने का मतलब है की मनुष्य को सदैव अच्छे विचार और अच्छे कार्य करते रहना चाहिए। यह अच्छे विचार और कार्य ही कर्मो का संवर (रोकना) और निर्जरा (नाश) कर आत्मा को परमात्मा बना देता है।
शब्द अर्थ – उपादान- प्राप्त करना, निमित्त- कारण, कर्मभूमि- पुरुषार्थ करना, दु:षमा-सुषमा- जहां दुःख और सुख दोनों हो, शुक्लध्यान- कषाय का नहीं होना।
अनंतसागर अंतर्भाव अडतीसवां भाग 15 जनवरी 2021, शुक्रवार, बांसबाड़ा
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