रावण से इन्द्र विद्याधर युद्ध में पराजित हुआ। रावण ने इंद्र को पराजित कर उसे बंधक बनाकर रखा फिर कुछ समय बाद उसने इन्द्र को छोड़ दिया। अपने इस अपमान से इन्द्र अंदर ही अंदर स्वयं की निंदा करने लगा और यह विचार करने लगा कि किस कर्म के उदय से मुझे रावण से अपमानित होना पड़ा।
उसी समय निर्वाणसंगम नाम के चारणमुनि विहार कर रथनुपुर आये। इन्द्र ने उन्हें नमस्कार कर रावण से युद्ध में मिली पराजय से स्वयं के हुए अपमान का कारण पूछा। तब मुनिराज ने कहा कि इस भव में आनन्दमाल मुनिराज का खोटे शब्दों में अपमान किया, उनका तिस्कार किया, उनकी अवज्ञा की। पर मुनिराज तो ध्यान में लीन थे, पर उन मुनिराज के पास एक कल्याणस्वामी नाम के मुनिराज थे। उन्होंने तुम्हें कहा कि तुमने बिना प्रयोजन मुनिराज को खोटे वचन बोले है और उनका तिरस्कार किया। इसका फल तुम्हें मिलेगा। तुम नाश को प्राप्त करोगे।
लेकिन, उस समय तुम्हारी पत्नी सर्वश्री ने मुनिराज की पूजा-अर्चना की। उनसे क्षमा याचना की। मुनि के क्रोध को शांत किया। पर, तुमने आनन्दमाल मुनि का जो अपमान और तिरस्कार किया, उसके फलस्वरूप ही तुम रावण के द्वारा अपमानित हुए हो।
उस अशुभ कर्म का फल सुनकर इन्द्र को वैराग्य हो गया। उसने दीक्षा धारण कर तप, साधना कर निर्वाण को प्राप्त किया। तब देखा कि मुनि निंदा के अशुभ कर्म से ही इन्द्र को अपमानित होना पड़ा।
अनंतसागर
कर्म सिद्धांत
अडतीसवां भाग
19 जनवरी 2021, मंगलवार, बांसवाड़ा
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