18
Jun
आचार्य श्री शांतिसागर महाराज ने व्यवहार और निश्चय का समन्वय बड़े सुंदर तरीके करते हुए कहा था कि व्यवहार फूल के समान है। वृक्ष में सर्वप्रथम फूल आता है। बाद में उसी पुष्प के भीतर फल अंकुरित होता है और जैसे-जैसे फल बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे फूल संकुचित होता जाता है और जब फल पूर्ण वृद्धि को प्राप्त हो जाता है, तब पुष्प स्वयं अलग हो जाता है। इसी तरह प्रारम्भ में व्यवहार धर्म होता है, उसमें निश्चय धर्म का फल निहित रहता है, धीरे-धीरे जैसे निश्चय रूपी फल बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे व्यावहारिक दृष्टि रूपी पुष्प स्वयं संकुचित हो जाता है, निश्चय की वॄद्धि होने पर व्यवहार स्वयं कम होते-होते घट जाता है। अंत में निश्चय की पूर्णता होने पर व्यवहार स्वयं अलग हो जाता है, हालांकि वह छोड़ा नहीं जाता।
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