सम्यकदर्शन के आठ अंगों में प्रसिद्ध पहले नि:शंकित अंग में प्रसिद्ध की कहानी
धन्वन्तरि और विश्वलोमा पुण्यकर्म के प्रभाव से अमितप्रभ और विद्युतप्रभ नाम के देव हुए। अमितप्रभ और विद्युतप्रभ एक-दूसरे की धर्मपरीक्षा के लिए पृथ्वी लोक पर आए। तदनन्तर उन्होंने यमदग्नि ऋषि को तप से विचलित किया। मगध देश के राजगृह नगर में जिनदत्त सेठ उपवास का नियम लेकर कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी की रात्रि को श्मशान में कायोत्सर्ग से स्थित था। उसे देखकर अमितप्रभ देव ने विद्युतप्रभ से कहा कि हमारे मुनि की बात तो दूर रही, इस गृहस्थ को ही तुम ध्यान से विचलित करो। तदनन्तर विद्युतप्रभ देव ने उस पर अनेक प्रकार के उपसर्ग किए, फिर भी वह ध्यान से विचलित नहीं हुआ। तदनन्तर प्रातःकाल अपनी माया को समेटकर विद्युतप्रभ ने उसकी बहुत प्रशंसा की और उसे आकाशगामिनी विद्या दी। विद्या प्रदान करते समय कहा कि यह विद्या दूसरों के लिए पञ्चनमस्कार मन्त्र की अर्चना और आराधना की विधि से सिद्ध होगी। जिनदत्त के यहाँ सोमदत्त नाम का ब्रह्मचारी वटु रहता था, जो जिनदत्त के लिए फूल लाकर देता था। एक दिन उसने जिनदत सेठ से पूछा कि आप प्रातःकाल ही उठकर कहाँ जाते हैं? सेठ ने कहा कि मैं अकृत्रिम चैत्यालयों की वन्दना भक्ति करने जाता हूँ।” मुझे इस प्रकार से आकाशगामिनी विद्या का लाभ हुआ है” सेठ के ऐसा कहने पर सोमदत्त बटु ने कहा कि मुझे भी यह विद्या दो, जिससे मैं भी तुम्हारे साथ पुष्पादिक लेकर वन्दना भक्ति करुंगा। तदनन्तर सेठ ने उसके लिए विद्या सिद्ध करने की विधि बतलाई। सोमदत्त वटु ने कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी की रात्रि को श्मशान में वटवृक्ष की पूर्व दिशा वाली शाखा पर 108 रस्सियों का एक मूँज का सींका बाँधा। उसके नीचे पैने शस्त्र ऊपर की ओर मुखकर रखे पश्चात गन्ध, पुष्प आदि लेकर सींके के बीच प्रविष्ट हो उसने वेला दो दिन के उपवास का नियम लिया। फिर पञ्चनमस्कार मन्त्र का उच्चारण कर छुरी से सीके की एक-एक रस्सी काटने को तैयार हुआ। परन्तु नीचे चमकते हुए शस्त्रों के समूह देखकर वह डर गया तथा विचार करने लगा कि यदि सेठ के वचन असल्प हुए तो मरण हो जाएगा। इस प्रकार शंकित चित्त होकर वह सौके पर बार-बार चढ़ने और उतरने लगा। उसी समय राजगृही नगरी में एक अञ्जन चोर और सुन्दरी नाम की वेश्या रहती थी। एक दिन उसने कनकप्रभ राजा की कनका रानी का हार देखा। रात्रि को जब अञ्जन चोर वेश्या के यहाँ गया तब उसने कहा कि यदि तुम मुझे कनकारानी का हार दे सकते हो तो मेरे भर्ता बन सकते हो, अन्यथा नहीं। तदनन्तर अञ्जन चोर रात्रि में हार चुराकर भाग रहा था कि हार के प्रकाश से वह पहचान लिया गया। अंगरक्षकों और कोटपाल ने पकड़ना चाहा परन्तु वह हार छोड़कर भाग गया। वटवृक्ष के नीचे सोमदत्त बटुक को देख उसने सब समाचार पूछा तथा उससे मन्त्र लेकर सीके पर चढ़ गया। उसने निःशंकित होकर उस विधि से एक ही बार में सीके की रस्सियाँ काट दीं। ज्यों ही वह शस्त्रों के ऊपर गिरने लगा त्यों ही विद्या सिद्ध हो गई। सिद्ध विद्या ने उससे कहा कि मुझे आज्ञा दो। अञ्जन चोर ने कहा कि मुझे जिनदत्त सेठ के पास ले चलो। उस समय जिनदत्त सेठ सुदर्शन मेरु के चैत्यालय में स्थित था। विद्या ने अञ्जन चोर को ले जाकर सेठ के सामने खड़ा कर दिया। पिछला वृत्तान्त कहकर अञ्जन चोर ने सेठ से कहा कि आपके उपदेश से मुझे जिस प्रकार यह विद्या सिद्ध हुई है उसी प्रकार परलोक की सिद्धि के लिए भी उपदेश दीजिए। तदनन्तर चारण ऋद्धिधारी मुनिराज से दीक्षा लेकर कैलाश पर्वत पर तप किया और कैवल्य ज्ञान प्राप्त कर वहीं से मोक्ष प्राप्त किया।
अनंत सागर
श्रावकाचार ( 19वां दिन)
बुधवार , 19 जनवरी 2022 बांसवाड़ा
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