एक बार आचार्य शांतिसागर महाराज ससंघ रायपुर पहुंचे तो वहां एक अंग्रेज अधिकारी की मेम ने दिगंबर संघ को देखा। दिगंबर साधुओं के संघ देखते ही उसकी यूरोपियन पद्धति और रुचि को बहुत धक्का लगा। उसने तुरंत अपने पति से उनकी शिकायत कर दी और कुछ ऐसा जाल रचा कि जिससे संघ के विहार में बाधा आए। अंग्रेज अधिकारी अनर्थ करने पर उतारू हो गया। ऐसे में समाज के कुछ जैन बंधु अफसर के पास पहुंचे और उन्होंने उसे महाराज श्री के महान जीवन के बारे में बताया। उन्होंने उसे बताया कि महाराज कितने बड़े तपस्वी हैं। अंग्रेज अधिकारी को तुरंत सब कुछ समझ में आ गया और उसने फिर कोई विघ्न पैदा नहीं किया। आचार्य शांतिसागर महाराज का कहना था कि दरअसल दिगबंरत्व के विषय में तर्क की अंगुली उठाने वालों के लिए यह जानना जरूरी है कि आत्मतल्लीनता और शरीर के प्रति निस्पृह भावना के कारण वस्त्रधारण की मनोवृत्ति नहीं रहती। जैसे सूरज उगने पर चांद और तारों का समूह विलीन हो जाता है, उसी प्रकार निर्मल आत्मा की अनुभूति होने पर शरीर आदि को सुख देने वाली सामग्री का ध्यान ही नहीं रहता। साक्षात् अमृत और आनंद के भंडार के रूप में आत्मत्व की उपलब्धि होने पर दिगंबर साधु की शरीर के प्रति उपेक्षा नैसर्गिक बात है।
29
Jun
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