पांचवें अणुव्रत परिग्रहविरति में प्रसिद्ध जयकुमार की कहानी इस प्रकार है। कुरुजांगल देश के हस्तिनागपुर नगर में कुरुवंशी राजा सोमप्रभ रहते थे। उनके जयकुमार नाम का पुत्र था। वह परिग्रहपरिमाण व्रत का धारी था तथा अपनी पत्नी सुलोचना से ही सम्बन्ध रखता था। एक समय पूर्व विद्याधर के भवों की कथा के बाद जिन्हें अपने पूर्वभवों का ज्ञान हो गया था, ऐसे जयकुमार और सुलोचना हिरण्यधर्मा और प्रभावती नामक विद्याधर युगल का रूप रखकर मेरु आदि पर वन्दना- भक्ति करके कैलास पर्वत पर भरत चक्रवर्ती के द्वारा प्रतिष्ठापित चौबीस जिनालयों की वन्दना करने के लिये आये। उसी अवसर पर सौधर्मेन्द्र ने स्वर्ग में जयकुमार के परिग्रहपरिमाणव्रत की प्रशंसा की। उसकी परीक्षा करने के लिये रतिप्रभ नाम का देव आया। उसने स्त्री का रूप रख चार स्त्रियों के साथ जयकुमार के समीप जाकर कहा कि सुलोचना के स्वयंवर के समय जिसने तुम्हारे साथ युद्ध किया था, उस विद्याधर राजा की रानी को जो कि अत्यन्त रूपवती, नवयौवनवती, समस्त विद्याओं को धारण करने वाली और उससे विरक्तचित्त है, स्वीकार करो, यदि उसका राज्य और अपना जीवन चाहते हो तो। यह सुनकर जयकुमार ने कहा कि हे सुन्दरी ऐसा मत कहो, परस्त्री मेरे लिये माता के समान है। तदन्तर उस स्त्री ने जयकुमार के ऊपर बहुत उपसर्ग किया, परन्तु उसका चित्त विचलित नहीं हुआ। वह रतिप्रभदेव माया को संकुचित कर, पहले का सब समाचार कहकर, प्रशंसा कर और वस्त्र आदि से पूजा कर स्वर्ग चला गया।
अनंत सागर
श्रावकाचार ( 73 वां दिन)
सोमवार, 14 मार्च 2022, घाटोल
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