सम्यकदर्शन के आठवें प्रभावना अंग में प्रसिद्ध व्यक्तित्व की कहानी।
हस्तिनागपुर में बल नामक राजा रहता था। उसके पुरोहित का नाम गरुड़ था। गरुड़ के एक सोमदत्त नाम का पुत्र था। उसने समस्त शास्त्रों का अध्ययन कर अहिच्छत्रपुर में रहने वाले अपने मामा सुभूति के पास जाकर कहा कि मामा जी मुझे दुर्मुख राजा के दर्शन करा दो, परन्तु गर्व से भरे हुए सुभूति ने उसे राजा के दर्शन नहीं कराये। तदंनतर वह हठधर्मी होकर स्वयं ही राजसभा में चला गया। वहाँ उसने राजा के दर्शन कर आशीर्वाद दिया और समस्त शास्त्रों की निपुणता को प्रकट कर मंत्री पद प्राप्त कर लिया। यह देख सुभूति मामा ने अपनी यज्ञदत्ता नाम की पुत्री विवाहने के लिये दे दी। यज्ञदत्ता जब गभर्वती हुई तो उसे वर्षाकाल में आम्रफल खाने का मन हुआ।
बाग-बगीचों में आम्रफलों को खोजते हुए सोमदत्त ने देखा कि जिस आम्रवृक्ष के नीचे सुमित्राचार्य ने योग ग्रहण किया है, वह वृक्ष नानाफलों से फला हुआ है। उसने उस वृक्ष से फल लेकर आदमी के हाथ घर भेज दिये और स्वयं धर्म श्रवण कर संसार से विरक्त हो गया तथा तप धारण कर आगम का अध्ययन करने लगा। जब वह अध्ययन कर परिपक्व हो गया तब नाभिगिरि पर्वत पर आतापन योग से स्थित हो गया। इधर यज्ञदत्ता ने पुत्र को जन्म दिया। पति के मुनि होने का समाचार सुन कर वह अपने भाई के पास चली गई। पुत्र की शुद्धि को जानकर वह अपने भाइयों के साथ नाभिगिरि पर्वत पर गई। वहीं आतनयोग में स्थित सोमदत्त मुनि को देखकर अत्यधिक क्रोध के कारण उसने वह बालक उनके पैरों के ऊपर रख दिया और गालियाँ देकर स्वयं घर चली गई।
उसी समय अमरावती नगरी का दिवाकर देव नाम का विद्याधर जो कि अपने पुरन्दर नामक छोटे भाई के द्वारा राज्य से निकाल दिया गया था, अपनी स्त्री के साथ मुनि की वंदना करने के लिये आया था। वह उस बालक को अपनी स्त्री को सौंप उसका नाम वज्रकुमार रखकर चला गया। वह वज्रकुमार कनकनगर में विमलवाहन नामक अपने मामा के समीप समस्त विद्याओं में पारगामी होकर तरुण हो गया।
तदनन्तर गरुड़वेग और अंगवती की पुत्री पवनवेगा हेमन्त पर्वत पर बड़े आराम से प्रज्ञप्ति नाम की विद्या सिद्ध कर रही थी। उसी समय बैरी का एक पैना काँटा उसकी आँख में जा लगा, पीड़ा से विद्या उसे सिद्ध नहीं हो रही थी। वज्रकुमार ने कुशलतापूर्वक वह काँटा निकाल दिया। काँटा निकल जाने से उसका चित्त स्थिर हो गया तथा विद्या सिद्ध हो गई। विद्या सिद्ध होने पर उसने कहा कि आपके प्रसाद से यह विद्या सिद्ध हो गयी है, इसलिये आप ही मेरे भर्ता हैं। ऐसा कहकर उसने वज्रकुमार से विवाह कर लिया।
एक दिन वज्रकुमार ने दिवाकरदेव विद्याधर से कहा कि तात! मैं किसका पुत्र हूँ सत्य कहिये, उसके कहने पर ही मेरी भोजनादि में प्रवृत्ति होगी। तदनंतर दिवाकर देव ने पहले का सब वृत्तान्त सच-सच कह दिया। उसे सुनकर वह अपने पिता के दर्शन करने के लिये भाइयों के साथ मथुरा नगरी की दक्षिण गुहा में गया। वहाँ दिवाकरदेव ने वन्दना कर वज्रकुमार के पिता सोमदत्त को सब समाचार कह दिया। समस्त भाइयों को बड़े कष्ट से विदाकर वज्रकुमार मुनि हो गया।
इसी बीच में मथुरा में एक दूसरी घटना घटी। वहाँ पूतिगन्ध राजा राज्य करता था। उसकी स्त्री का नाम उविला था। उर्विला सम्यग्दृष्टि थी। वह प्रतिवर्ष अष्टान्हिक पर्व में तीन बार जिनेन्द्र देव की रथयात्रा निकालती थी। उसी नगरी में एक सागरदत्त सेठ रहता था, उसकी सेठानी का नाम समुद्रदत्ता था। उन दोनों के एक दरिद्रा नाम की पुत्री हुई। सागरदत्त के मर जाने पर एक दिन दरिद्रा दूसरे के घर में फेंके हुए भात खा रही थी। उसी समय चर्या के लिये प्रविष्ट हुए दो मुनियों ने उसे देखा। तदनन्तर छोटे मुनि ने बड़े मुनि से कहा कि हाय बेचारी बड़े कष्ट से जीवन बिता रही है। यह सुनकर बड़े मुनि ने कहा कि यह इसी नगरी में राजा की प्रिय पटरानी होगी, भिक्षा के लिये भ्रमण करते हुए एक बौद्ध साधु ने मुनिराज के वचन सुनकर विचार किया कि मुनि का कथन अन्यथा नहीं होगा, इसलिये वह उसे अपने विहार में ले गया और वहाँ अच्छे आहार से उसका पालन-पोषण करने लगा।
एक दिन यौवनावस्था में वह चैत्रमास के समय झूला झूल रही थी कि उसे देखकर राजा अत्यन्त विरहावस्था को प्राप्त हो गया। तदनंतर मंत्रियों ने उसके लिये बौद्ध साधु से याचना की। उसने कहा कि यदि राजा हमारे धर्म को ग्रहण करें तो मैं इसे दे दूंगा। राजा ने वह सब स्वीकृत कर उसके साथ विवाह कर लिया और वह उसकी अत्यन्त प्रिय पटरानी बन गई।
फाल्गुन मास की नन्दीश्वर यात्रा में उर्विला ने रथयात्रा की तैयारी की। उसे देख उस पटरानी ने राजा से कहा कि देव मेरा बुद्ध भगवान् का रथ इस समय नगर में पहले घूमे। राजा ने कह दिया कि ऐसा ही होगा। तदनंतर उर्विला ने कहा कि यदि मेरा रथ पहले घूमता है तो मेरी आहार में प्रवृत्ति होगी, अन्यथा नहीं। ऐसी प्रतिज्ञा कर वह क्षत्रियगुहा में सोमदत्त आचार्य के पास आई। उसी समय वज्रकुमार मुनि की वन्दना-भक्ति के लिये दिवाकर देव आदि विद्याधर आये थे। वज्रकुमार मुनि ने यह सब वृत्तान्त सुनकर उनसे कहा कि आप लोगों को प्रतिज्ञा पर आरूढ़ उर्विला की रथ यात्रा कराना चाहिये। तदनन्तर उन्होंने बुद्ध दासी का रथ तोड़ कर बड़ी विभूति के साथ उर्विला की रथयात्रा कराई। उस अतिशय को देखकर प्रतिबोध को प्राप्त हुई बुद्ध दासी तथा अन्य लोग जैनधर्म में लीन हो गये।
कहानी का सार है कि सम्यक दर्शन का आठवां अंग प्रभावना अज्ञानरूपी अंधकार को दूर कर हमें सद्मार्ग पर ले जाता है।
अनंत सागर
श्रावकाचार ( 26 वां दिन)
बुधवार , 26 जनवरी 2022, बांसवाड़ा
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