जो पदार्थ जिस रूप मे है, उस रूप में नहीं कहना, पर उसका कार्य सिद्ध हो जाना, जैसे कमण्डल को कमण्डल नहीं कहकर घटा कह देना, इससे कार्य सिद्ध हुआ है, क्योंकि दोनों पानी भरने के काम आते हैं। अंधे को अंधा कहना, कर्कश वचन कहना, निंदा करना, चुगली करना। यह चार प्रकार से बोला गया वचन असत्य ही है, क्योंकि इनमें राग-द्वेष की भावना है। इस प्रकार के वचनों का त्याग करना सत्याणुव्रत है ।
आचार्य समन्तभ्रद स्वामी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में सत्याणुव्रत का स्वरूप बताते हुए कहा है कि …
स्थूलमलीकं न वदति, न परान् वादयति सत्यमपि विपदे ।
यत्तद्वदन्ति सन्तः, स्थूलमृषावादवैरमणम् ॥55॥
अर्थात- जो स्थूल झूठ को न स्वयं बोलता है, न दूसरों से बुलवाता है और ऐसा सत्य भी न स्वयं बोलता है, दूसरों से बुलवाता है जो दूसरों की विपत्ति के लिए हो, उसकी उस क्रिया को सत्पुरुष स्थूल असत्यकथन/ झूठ का त्याग अर्थात् सत्य अणुव्रत कहते हैं।
कोई शिकारी अपनी मुट्ठी में जिन्दा चिड़िया की गर्दन दबाकर एक सत्यवादी से पूछता है कि बताओ यह जिन्दा है या मरी ? सत्यवादी विचार करता है कि यदि मैं इसे जिन्दा कहता हूँ तो यह गर्दन को दबाकर इसे मार डालेगा और मरी कहता हूँ तो इसे छोड़कर कहेगा कि देखो, यह तो जिन्दा है तुम कैसे सत्यवादी हो ऐसा विचार कर सत्यवादी ने उत्तर दिया यह चिड़िया मरी है। शिकारी ने तत्काल चिड़िया को मुट्ठी से छोड़कर कहा कि तुम कैसे सत्यवादी हो। जहाँ जीवरक्षा का भाव होने से असत्य वचन भी सत्य वचन के रूप में परिणत हो गया है। सत्यवादी के सामने एक कातिल ने एक निरपराध व्यक्ति की हत्या कर दी। हत्या के अपराध में वह पकड़ा गया। गवाही के लिये उस सत्यवादी को बुलाया गया। यदि सत्यवादी सत्य कहता है तो कातिल को प्राणदण्ड की सजा मिलती और असत्य कहता है तो वह छूट तो जाता, पर उससे अन्याय का समर्थन होता, जिसके फलस्वरूप उस कातिल के द्वारा अन्य अनेक जीवों की भी हिंसा हो सकती थी। इस स्थिति में सत्यवादी सत्य बोले या असत्य ?
उस समय परिस्थिति के अनुसार सत्यवादी तीन कार्य कर सकता है। प्रथम तो वह इस प्रकार की गवाही के चक्र में न पड़े। द्वितीय यह कि यदि वह कातिल अपने पाप से घृणा करने लगता है और आगामी समय में वैसा अपराध नहीं करने की प्रतिज्ञा करता है तो उसकी प्राणरक्षा के अभिप्राय से सत्य नहीं बोले और तृतीय यह कि अन्य अनेक जोवों के रक्षा के अभिप्राय से वह सत्य बोले, क्योंकि संसार में अराजकता फैले तथा उसके फलस्वरूप अनेक जीवों की हत्या हो, यह एक जीव के प्राणघात की अपेक्षा अधिक पाप है ।
अनंत सागर
श्रावकाचार ( 61वां दिन)
बुधवार, 2 मार्च 2022, घाटोल
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