मानव शरीर सप्तधातु रस, रक्त, मांस, मेद ,अस्थि, मज्जा एवं शुक्र से निर्मित है। मनुष्य का यह शरीर मलों से भरा हुआ है। शरीर में मल के नौ द्वार माने हैं। दो आंख, दो कान, नाक के दोनों छिद्र, मल का स्थान, मूत्र का स्थान एवं मुख। शरीर के ऊपर त्वचा है और इसके भीतर खून, पीप, मांस, मज्जा आदि भरा हुआ है।
शरीर में जितना मल है, उतना संसार में और कहीं नहीं है, लेकिन सम्यग्दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र धारण करते ही यह शरीर पवित्र हो जाता है। मुनि बनने के बाद मनुष्य स्नान नहीं करता, लेकिन उनके शरीर का तेज अधिक होता है । अर्थात उन्होंने अपनी देह को त्याग, तप आदि में तपाकर और रत्नत्रय के माध्यम से पावन कर लिया है। प्राचीन शास्त्रों में कहा गया है कि समाधिमरण के बाद भी मुनि के शरीर को पवित्र एवं पूजनीय माना गया है, क्योंकि वे रत्नत्रय के पालन करने वाले हैं।
आचार्य समन्तभ्रद भ्रद स्वामी ने रत्नकरण्ड श्रावकार में सम्यग्दर्शन के आठ गुणों में से तीसरे अंग का स्वरूप बताते हुए कहा है कि
स्वभावतोऽशुचौ काये, रत्नत्रयपवित्रिते।
निर्जुगुप्सा गुणप्रीतिर्मता निर्विचिकित्सता ॥13॥
अर्थात- स्वभाव से शुचिता रहित अपवित्र किन्तु रत्नत्रय से पवित्र शरीर में ग्लानि रहित गुणों में प्रेम होना ग्लानि रहितपना निर्विचिकित्सा (मता) मानी गई है।
सार है कि मनुष्य को दीक्षा के मार्ग पर चलकर अपने आप को पवित्र करना चाहिए और जिन्होंने दीक्षा धारण कर ली है, उनके शरीर को देखकर ग्लानि नहीं करनी चाहिए। उनकी सेवा एवं वैय्यावृति करनी चाहिए। शरीर तो नाशवान है, लेकिन शरीर के निमित्त जो रत्नत्रय धारण किया है, वह पवित्र है उस रत्नत्रय से प्रेम करना चाहिए। हमारा कल्याण तभी संभव है, जब हम सभी बाहरी और आंतरिक मलिनताओं से परे होकर सम्यक ज्ञान, दर्शन और चारित्र के मार्ग पर चलें।
अनंत सागर
श्रावकाचार (बारहवां दिन)
बुधवार, 12 जनवरी 2022, बांसवाड़ा
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