व्यक्ति मोह में आकर अपनी बुद्धि, शक्ति, ज्ञान का नकारात्मक उपयोग करता है। वह हित-अहित के बारे में भी नही सोचता है। उसका हित चाहने वालो को वह अपना शत्रु मान लेता है। पद्मपुराण के पर्व 55 में एक प्रसंग आया है वह प्रसंग हमें प्रेरणा देता है कि मोह के कारण कभी कोई निर्णय नही करना चाहिए बल्कि सबकी सुनकर शान्त भाव से निर्णय करना चाहिए।
प्रसंग कुछ ऐसा है-
जब राम युद्ध के लिए लंका के पास पहुंचे तो विभीषण ने रावण को समझाया कि आपकी सम्पदा इन्द्र के समान है, आप बुद्धिमान, विद्वान, शक्तिशाली हो। आप की कीर्ति चारों और फैली है। आप की यह कीर्ति आदि सब सीता के कारण नष्ट हो जाएगी, इसलिए परस्त्री का जो आपने हरण किया है वह दु:ख का कारण बनेगा। उसे वापस राम को दे दीजिए। सीता को वापस देने में कोई दोष नही है। यह कार्य प्रशंसनीय भी है और उचित भी है।
यह सब बातें रावण का पुत्र इंद्रजीत सुन रहा था। इंद्रजीत पिता के अभिप्राय को जानकर विभीषण से कहता है कि तुम्हें किसने पूछा कि क्या करना है और क्या नहीं। तुम्हें इस प्रकार के वचन कहने का क्या अधिकार है? तुम्हें युद्ध से डर लगता है तो घर मे जाकर बैठ जाओ। विभीषण, इंद्रजीत से कहता है तुम रावण पुत्र नहीं हो सकते हो। तुम तो उसके शत्रु हो। तभी इस प्रकार की अधर्म की बात कर रहे हो। तुम्हारे पिता मोह के कारण विपरीत बुद्धि हो रहे हैं। रावण, सीता को अपितु मृत्यु का कारण लेकर आए हैं।
यह सब सुनकर रावण तलवार लेकर विभीषण को मारने के लिए तैयार हो गया। इधर विभीषण ने खम्भा उखाड़ दिया। दोनों को इस स्थिति में देख मंत्रियों ने समझाया। रावण कहने लगा इस विभीषण को अभी लंका से निकाल दो। यह यहां नही रहना चाहिए। विभीषण भी यह सब सुनकर चला गया और राम की शरण में आ गया।
तो देखा आपने कि रावण ने उसका हित चाहने वाले विभीषण तक को निकाल दिया। स्त्री मोह में उसका सबकुछ नष्ट हो गया। यह प्रसंग प्रेरणा देता है कि सबकी बात सुनकर धर्म के अनुसार निर्णय करना चाहिए।
अनंत सागर
प्रेरणा
पैतालीसवां भाग
11 मार्च 2021, गुरुवार, भीलूड़ा (राजस्थान)
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