मुनि पूज्य सागर की डायरी से
मौन साधना का 41वां दिन। मैं शुद्ध हूं, निर्मल हूं पर कर्मों के कारण मलिन हो गया हूं। मुझे कर्मों से रहित होना है। अपने स्वरूप में आना है। यह सब स्वीकार करना ही सबसे बड़ा सत्य है। सत्य आपस में एक- दूसरे से जोड़ता है, मददगार बनाता है, एक दूसरे की तकलीफ को समझने की बुद्धि देता है, पूरे विश्व को अपना परिवार समझता है। साथ ही दूसरों की बड़ी से बड़ी गलती पर उन पर क्षमाधारण करता है। अहंकार का भाव भी नहीं आने देता है। सहज, सरल बनाए रखता है। सबको समान भाव से देखता है।
सत्य को स्वीकार करने वाले इंसान में यह सब गुण अपने आप ही आ जाते हैं। इंसान सत्य को स्वीकार तो कर लेता है, पर न जाने किस कारण से उस सत्य को जीवनचर्या में नहीं उतारता है। इंसान सत्य के मार्ग पर चलता तो है, पर सत्य तक पहुंचने के मार्ग से बीच में ही विचलित हो जाता है और सत्य तक पहुंच ही नहीं पाता है।
आज चिंतन में मुझे समझ आ गया कि सत्य के मार्ग पर पहुंचने के लिए सब प्राणी को अपना मानना होगा। हर इंसान में उसकी अच्छाई के अलावा और कुछ नहीं देखूंगा। अपनी अच्छाई को नहीं, अपनी गलतियों को देखूंगा, उसे सुधारने का संकल्प करूंगा। जो मेरे साथ हो रहा है, वह मेरे किए कार्य का फल है। इस फल को सहजता से स्वीकार कर समता भाव रखूंगा। इन संकल्पों के साथ सत्य के मार्ग पर चलते समय इंसान विचलित कभी नहीं होगा।
मंगलवार, 14 सितम्बर, 2021 भीलूड़ा
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