पाटलिपुत्र में दो वेश्याएं रहती थीं। एक नाम था कोशा और दूसरा का था उपकोशा। स्थूलभद्र कोशा के साथ रहते थे। कुछ समय बाद उन्होंने दीक्षा ग्रहण कर ली लेकिन चातुर्मास कोशा के घर ही बिताया।
अब कोशा श्राविका बन गई और उसने ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार कर लिया। अब वह केवल राजा के आदेश से ही किसी के पास रह सकती थी।
उसी नगर में एक रथकार ने राजा की आराधना करके उसे प्रसन्न कर लिया। राजा ने कोशा को उसके हवाले कर दिया लेकिन कोशा हमेशा स्थूलभद्र के गुणों का बखान करती रहती थी। रथकार की सेवा-सुश्रुषा से उसे कोई मतलब नहीं था।
एक दिन रथकार उसे अशोक वाटिका ले गया और वहां उसने आम के पेड़ पर लगे आमों के गुच्छे को तीर से बींधकर इस तरह गिराया कि वह उसके हाथ में आ गया लेकिन रथकार के हाथ की सफाई भी कोशा को संतुष्ट न कर सकी। वह बोली, अभ्यास से तो हर मुश्किल चीज आसान हो जाती है। वह खुद सरसों के ढेर पर, सूई के अग्रभाग पर और कनेर के फूलों के पराग पर नृत्य कर सकती है। इस पर रथकार ने बड़े सम्मान से कोशा की प्रशंसा की। कोशा ने उत्तर दिया, ‘न आम तोडऩा कठिन है और न ही नृत्य करना। केवल वही कठिन है और वही मान्य है जो मुनि स्थूलभद्र प्रमदवन में कह गए हैं।’
यह सुनकर रथकार शांत हो गया।
इस कहानी का नैतिक मूल्य यह है कि जिससे हम सच्चा प्रेम करते हैं, हम सभी ओर केवल उसी के गुण और अच्छाई दिखाई देते हैं। प्रेमी की हर छोटी से छोटी चीज के आगे अपनी या किसी और की बड़ी से बड़ी चीज भी तुच्छ दिखाई देने लगती है।
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