संसार में दुखों का कोई अंत नहीं है। दुखों का अंत तो मुक्त होने पर ही है। जीव की दो ही गति है। पहली संसारी और दूसरी मुक्त । संसारी गति कर्म सहित होती है। जहां दुखों का कोई अंत नहीं और मुक्त गति ( मोक्ष) कर्म से रहित होती है, जहां पर रंच मात्र भी दुःख नहीं अर्थात शाश्वत सुख है। ऐसा सुख जो कभी भी नाश को प्राप्त होने वाला नहीं है। तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ, राम आदि जब संसार अवस्था में थे तो उन्हें भी दुखों का सामना करना पड़ा।
संसार से छूटने और मुक्त होने के लिए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र तीनों की आवश्यकता है। सम्यग्दर्शन मोक्ष महल की प्रथम सीढ़ी है। दर्शन के साथ ज्ञान अपने आप सम्यग्ज्ञान हो जाता है। ज्ञान के बल पर आचरण व्यवस्थित होते ही सम्यग्चारित्र हो जाता है । जीव से राग-द्वेष से दूर होते ही आचरण सम्यग हो जाता है अर्थात जीवन में आचरण आ जाता है। सम्यग्ज्ञान से जो आचरण है, वही सम्यग्चारित्र है । चारित्र होते ही वस्तु, द्रव्य आदि से राग-द्वेष का भाव नहीं रहता है।
आचार्य समन्तभ्रद स्वामी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में सम्यग्चारित्र के स्वरूप का वर्णन करते हुए लिखा है कि…
मोहतिमिरापहरणे, दर्शनलाभादवाप्तसंज्ञानः । रागद्वेषनिवृत्त्यै, चरणं प्रतिपद्यते साधुः ॥47॥
अर्थात- मोहरूपी अन्धकार के दूर होने पर सम्यग्दर्शन की प्राप्ति से प्राप्त हुआ है सम्यग्ज्ञान जिसे ऐसा सजन /भव्यजीव रागद्वेष की निवृत्ति के लिए सम्यकचारित्र को प्राप्त होता है।
इस श्लोक में स्वामी समन्तभद्र ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र की प्राप्ति का क्रम तथा चारित्र धारण करने का प्रयोजन बहुत उत्तम रीति से प्रकट किया है। मोहकर्म के दो भेद हैं- दर्शनमोह और चारित्रमोह। दर्शनमोह के उदय से यह जीव पर पदार्थों में अहं बुद्धि करता है अर्थात् शरीरादि रूप ही मैं हूँ, ऐसा श्रद्धान करता है और चारित्र मोह के उदय से स्त्री-पुत्र धन-धान्यादि में ममत्व बुद्धि करता है अर्थात् ये मेरे हैं, ऐसा भाव करता है।
मोह का प्रचलित नाम मिथ्यात्व है। यह मिथ्यात्व अन्धकार के समान है, क्योंकि जिस प्रकार अन्धकार नेत्र की दर्शन शक्ति देखने की सामर्थ्य को प्रकट नहीं होने देता है। उसी प्रकार मिथ्यात्व भी इस जीव को दर्शन शक्ति समीचीन श्रद्धारूप सामर्थ्य को प्रकट नहीं होने देता है। जब इस जीव का मिथ्यात्वरूपी अन्धकार नष्ट हो जाता है, तभी सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होते ही ज्ञान सम्यग्ज्ञान में परिवर्तित हो जाता है। सम्यग्दर्शन के होने से जीव को यह श्रद्धा हो जाती है कि सुख का कारण पर पदार्थ नहीं है, आत्मा की निराकुल परिणति ही है। ऐसी श्रद्धा के होते ही उसका पर पदार्थ से अहं भाव नष्ट हो जाता है तथा सम्यग्ज्ञान होने से यह सुख का सही मार्ग खोजने में समर्थ हो जाता है। इस तरह सम्यग्दर्शन और सम्यक ज्ञान के प्राप्त हो जाने से पर-पदार्थों में ममत्व बुद्धि हट जाती है और उसके हटते ही रागद्वेष दूर हो जाते हैं। जिसके रागद्वेष दूर हो जाते हैं, वह सम्यक् चारित्र को अनायास ही प्राप्त हो जाता है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि रागद्वेष की निवृत्ति होना ही चारित्र है। जब तक ऐसा चारित्र प्राप्त नहीं होता तब तक इस जीव का कल्याण नहीं हो सकता ।
अनंत सागर
श्रावकाचार ( 53वां दिन)
मंगलवार, 22 फरवरी 2022, घाटोल
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