संसार के सभी सुखों में सबसे महत्वपूर्ण है शांति। दुनिया के सभी वैभव से पूर्ण व्यक्ति को भी शांति की तलाश है, लेकिन यह भौतिक संसाधनों से नहीं, बल्कि आत्मचिंतन से मिलती है। शांति से ही सम्यग्दर्शन का जन्म होता है और इसी से ज्ञान एवं चारित्र पवित्र होते हैं। सम्यग्दर्शन देव, शास्त्र और गुरु पर श्रद्धा का विषय है।
कोई मनुष्य कर्म के उदय से काम, लोभ, मद आदि के कारण सम्यग्दर्शन धर्म से विचलित हो रहा हो तो उसे धर्म का महत्व बताकर, उसके दोषों को दूर कर, उसके परिवार के पालन पोषण के लिए उसे आर्थिक एवं मानसिक रूप से सहयोग कर पुनः सम्यग्दर्शन धर्म की ओर लाना धर्मात्मा एवं सम्यकदृष्टि जीव का कर्तव्य है। इसे ही स्थितिकरण अंग कहते हैं। इस अंग का पालन करने वाला अपने धर्म के इतिहास को सुरक्षित रखता है। इसी से एक-दूसरे के प्रति आत्मीय भाव बनता है और चारों और सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। स्वयं भी किसी कारण से सम्यग्दर्शन से विचलित ना हों, इसके लिए सदैव तीर्थंकर आदि महापुरुषों के जीवन चरित्र का चिंतन करते रहना चाहिए, तभी स्थितिकरण अंग की पालना होगी।
आचार्य समन्तभ्रद स्वामी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में सम्यग्दर्शन के आठ गुणों में से छठे स्थितिकरण अंग का स्वरूप बताते हुए कहा है कि
दर्शनाच्चरणाद्वापि चलतां धर्मवत्सलैः ।
प्रत्यवस्थापनं प्राज्ञैः स्थितीकरणमुच्यते ॥16॥
अर्थात. धर्मस्नेही जनों के द्वारा सम्यग्दर्शन से अथवा सम्यक चारित्र से भी विचलित होते हुए पुरुषों का फिर से पहले की तरह स्थिर करने को विद्वानों के द्वारा स्व पर को स्थिर करने रूप स्थितिकरण अंग कहा जाता है।
यह अंग मनुष्य को धर्म से जोड़े रखने का काम करता है। एक-दूसरे को अहिंसा, अपरिग्रह आदि मूल्यों से बांधे रखता है। यह अंग सामाजिक एकता और सद्भाव को बढ़ाता है और संस्कृति के संरक्षण के लिए प्रेरित करता है। सार है कि इस अंग का पालन कर हम एक सभ्य, सकारात्मक, सद्भावी और विवेकशील समाज के रूप में अग्रसर हो सकते हैं और पथ विचलित होते हुए व्यक्ति को सही राह दिखाकर अपना कर्तव्य निभा सकते हैं।
अनंत सागर
श्रावकाचार (पन्द्रहवां दिन)
शनिवार, 15 जनवरी 2022, बांसवाड़ा
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