मनुष्य की सांसारिक सुखों की चाह अनंत है। उसकी लालसाएं निरंतर बढ़ती जाती हैं और इनकी पूर्ति की मंशा से ही वह भगवान की पूजा एवं धार्मिक क्रियाएं करता है। वह भूल जाता है कि कैसे भगवान की आराधना करनी चाहिए। सांसारिक सुखों की इच्छा के लिए जिनेन्द्र भगवान की आराधना करना पाप-मिथ्यात्व का कारण है। लौकिक सुखों की चाह के साथ की जाने वाली आराधना पुण्य-सम्यकत्व की आराधना नहीं सकती है। बुरे व्यक्ति की संगति से व्यक्तित्व पर बुरा असर होता है। गलत मार्गदर्शक के पास जाने से मार्गदर्शन भी गलत ही मिलेगा। जैसा वातावरण मिलेगा, वैसे ही संस्कार जीवन में आते हैं।
आचार्य समन्तभ्रद स्वामी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में बताया है कि वर की इच्छा रखते हुए रागी-द्वेषी देवताओं की पूजा करने से क्या दोष लगता है…
वरोपलिप्सयाशावान्रागद्वेषमलीमसाः।
देवता यदुपासीत देवतामूढमुच्यते ॥23॥
अर्थात वरदान प्राप्त करने की इच्छा से आशा से युक्त राग-द्वेष से मलिन देवताओं को जो पूजता है, वह देवमूढ़ता कही जाती है।
आचार्य समन्तभद्रस्वामी ने देव का लक्षण वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशक बतलाया है। इसके विपरीत जो राग-द्वेष से मलिन है, अर्थात् उपासना करने से प्रसन्न होता है और उपासना न करने से रुष्ट होता है, वह देव नहीं है, अदेव है।
सांसारिक फलों की इच्छा रखकर ऐसे रागी-द्वेषी देवों की आराधना करना सम्यग्दृष्टि का कर्त्तव्य नहीं है। सम्यग्दृष्टि का धर्माचरण कर्मक्षय के उद्देश्य से होता है, भोगोपभोग की वस्तुएँ प्राप्त करने के उद्देश्य से नहीं। यह उद्देश्य तो अभव्य जीव का रहता है, जैसा कि कहा है- धम्मं भोगणिमित्तं कुव्वइ ण दु कम्मक्खयणिमित्तं अर्थात् वह भोग के निमित्त धर्म करता है न कि कर्मक्षय के निमित्त। जैन धर्म वीतराग धर्म है। जिनेन्द्र देवों की आराधाना करने से पाप नहीं लगता है ।
अनंत सागर
श्रावकाचार ( 29 वां दिन)
शनिवार, 29 जनवरी 2022, बांसवाड़ा
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