दूध से तेल निकालने की कोशिश बेकार है, क्योंकि दूध से तो घी ही निकलेगा
आज कुछ ऐसा लगा जैसे मुझे इस अवस्था में पहले आ जाना था। 20 वर्षों से जिस रास्ते पर चलने निकला था उसका सही अर्थ आज समझ आया है। घर, परिवार, मित्र सब छोड़ने के साथ उन विचारों, कार्यों और आदतों को भी छोड़ना चाहिए जो इन तक ले जाती है। संन्यास और संसार की चमक एक साथ नही रह सकती। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। दोनों को जीवनचर्या में साथ रखने का मतलब जीवन को टेंशन में डालना और जीवन भर कंफ्यूजन में रहना। ये कंफ्यूजन कि सही क्या है, इसमें इंसान न तो संसार का न संन्यास का जीवन सही से जी पाता है। ऐसे में इंसान या तो अंदर से संसारी और बाहर से संन्यासी या फिर इसका उल्टा, अंदर से संन्यासी और बाहर से संसारी होता है। और यह कभी भी किसी भी स्थिति में संभव नही है कि एक साथ दोनों का आनन्द ले सके।
तभी तो इस प्रकार के दोहरे जीवन जीने वाले इंसान को सफलता नहीं मिलती क्योंकि वह अभी तक कंफ्यूजन और टेंशन में है कि वह अभी कहां खड़ा है। जब तक वह तय नही करेगा कि वह कहां है तो कैसे अपने रास्ते को पार कर सकता है। आज तक मेरी यह गलत धारणा थी कि बाहरी और आधुनिक साधन व्यक्ति के व्यक्तित्व को निखार सकते हैं। उसे अध्यात्म की और बढ़ा सकते हैं। जबकि सही समझ तो आज आई है कि आध्यात्म और संन्यास को मजबूत बनाने के लिए अपने अंदर के साधनों का ही उपयोग करना होगा। दूध में से तेल निकालने की कोशिश बेकार है क्योंकि दूध से तो घी ही बनाया जा सकता। उसी प्रकार से बाहरी साधन और आधुनिक साधन से आध्यात्म और संन्यास को जीवन में मजबूत बनाने का मतलब अपने आप को अंधकार में रखना होगा, अपने आप से धोखा देना होगा। यह सब मेरे साथ हुआ है, जब मैं एकांत अपने आप के साथ आया तभी अखण्ड मौन साधना के तीसरे दिन ये बात पता चली और कुछ अधिक चिंतन कर ही रहा था कि एकांत से बाहर ही आ गया।
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