आचार्य शांतिसागर महाराज ने कई बार सर्पकृत उपसर्ग सहे थे। एक बार उनसे किसी ने पूछा कि सर्पकृत भयंकर उपसर्ग होते हुए भी आपकी आत्मा में घबराहट क्यों नहीं होती, जबकि सर्प को तो साक्षात् मृत्युराज ही माना गया है। इस पर आचार्य श्री ने बड़ी शांति के साथ कहा कि उन्हें विपत्ति के समय कभी घबराहट नहीं होती। सर्प तो आता है और लिपटकर चला जाता है, इसमें घबराने की क्या बात है। यदि सर्प से हमारा कोई पुराना बैर होगा तो ही वह हमें नुकसान पहुंचाएगा, वरना नहीं। महाराज श्री ने बताया कि सर्प के आने और उनसे लिपटने पर वह सिद्ध भगवान का ध्यान करते हैं और जब वह ध्यान में होते हैं तो उन्हें किसी बाहरी वस्तु का भान नहीं रहता था। देखा जाए तो सर्पकृत उपसर्ग महाराज श्री के जीवन की अग्निपरीक्षा से कम नहीं थे लेकिन वह अपने भेदविज्ञान की ज्योति से अपनी आत्मा को सर्पबाधा मुक्त जानते हुए आत्मा से भिन्न शरीर को सर्प से लिपटे हुए रहने पर भी परम शांत रहे। वह कहते थे कि सर्प तो उनके पास यह देखने आता है कि वह समता भाव रखते हैं या नहीं और जब वह मुझे सच्चे साधक के रूप में पाता है तो चला जाता है। यह घटना उनके शांतिसागर नाम को चरितार्थ करती है।
08
Jun
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