ईश्वर बनने की चाह में प्राणी ईश्वर की आराधना करता है। तत्त्वार्थ सूत्र के मंगलाचरण में कहा गया है कि अरिहंत के गुणों की प्राप्ति के लिए नमस्कार करता हूं । ईश्वर वही कहलाता है, जिसने कर्मों का नाश कर दिया और कर्मों नाश वही कर सकता है, जिसके मन में संसार के प्रत्येक प्राणी के लिए यह भाव हो कि वह सुखी हो जाए। इस प्रकार की भावना एक भव में नहीं, न जाने कितने भव तक करनी होती है। तब जाकर तीर्थंकर प्रकृति का पुण्य बन्ध होता है। सम्यग्दृष्टि प्राणी ही इस प्रकार की भावना कर सकता है। संसार में मात्र तीर्थंकर ही भय, रोग, शोक आदि से रहित है और उनकी शरण में जाने वाला भी इन से रहित हो जाता है।
आचार्य समन्तभ्रद स्वामी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहा है कि …..
शिव-मजर मरुज-मक्षयमव्याबाधं विशोकभयशङ्कम् ।
काष्ठागतसुखविद्या-विभवं विमलं भजन्ति दर्शनशरणाः ॥40॥
अर्थात जैनदर्शन की शरण को प्राप्त सम्यग्दृष्टि जीव बुढ़ापा रहित, रोगरहित, क्षयरहित बाधारहित, शोक, भय तथा शंका-रहित पराकाष्ठा/अंतिम सीमा को प्राप्त अनन्तसुख और अनन्तज्ञानरूप वैभव वाले द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म से रहित निर्मल मोक्ष को प्राप्त होते हैं।
समस्त कर्म कालिमा से रहित जीव की जो शुद्ध परिणति है। उसे मोक्ष कहते हैं। इस मोक्ष में द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्मरूप पर पदार्थ का सम्बन्ध सदा के लिए छूट जाता है, इसलिए उसके निमित्त से होने वाले बुढ़ापा, रोग, विविध बाधाएँ, शोक, भय, शंका आदि दुर्गुण स्वयं दूर हो जाते हैं। ज्ञान और सुख अपने सर्वोत्कृष्ट रूप में प्रकट हो जाते हैं। यह मोक्ष अविनाशी है। प्राप्त होकर फिर नष्ट नहीं होता। इस प्रकार के मोक्ष की प्राप्ति भी सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र से सहचरित सम्यग्दर्शन से ही होती है ।
अनंत सागर
श्रावकाचार (46वां दिन)
मंगलवार, 15 फरवरी 2022, बांसवाड़ा
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