संसार से मोक्ष की यात्रा तय करने के लिए जैन शास्त्रों में सात परम स्थान बताए हैं। जो मनुष्य संसार सुख और मोक्ष की अभिलाषा रखता है वह क्रम से सात परम स्थान को प्राप्त करता है। जिसने हिंसा पाप, क्रोध आदि कषाय को छोड़ दिया तथा अपने जीवन को संयत कर लिया है वह श्रावक इन सात परम स्थान को प्राप्त कर सकता है। इन सात परम स्थानों को शास्त्र में “सप्तपरम स्थान“ कहा है । इन सप्तपरम स्थान को प्राप्त करने वाला ही धार्मिक अनुष्ठानों के फल को प्राप्त कर सकता है, अर्थात संसार के सुख और मोक्ष को प्राप्त कर सकता है।
सज्जाति सद्गृहस्थत्वं पारिव्राज्यं सुरेन्द्रता ।
साम्राज्यं परमाहृन्त्यं निर्वाण चेति सप्तधा ।।
सज्जाति, सद्गृहस्थता (श्रावक के व्रत), पारिव्राज्य (मुनियों के व्रत), सुरेन्द्रपद,साम्राज्य (चक्रवर्ती पद), अरहंत पद और निर्वाण पद यह सात परम स्थान है ।
सम्यग्दृष्टि जीव (श्रद्धावान, क्रियावान और विवेकवान) क्रम-क्रम से इन परम स्थानों को प्राप्त कर लेता है।
• सज्जाति – विशुद्ध कुल और विशुद्ध जातिरूपी सम्पदा सज्जाति है। पिता के वंश की जो शुद्धि है उसे कुल कहते हैं और माता के वंश की शुद्धि जाति कहलाती है। कुल और जाति दोनों की विशुद्धि को ‘सज्जाति’ कहते हैं ।
• सद्गृहस्थता (श्रावक के व्रत)- सज्जाति नाम के परमस्थान को प्राप्त करने वाला भव्य ‘सद्गृहित्व’ परमस्थान को प्राप्त करता है। वह सद्गृहस्थ आर्य पुरुषों के करने योग्य छह कर्मों का पालन करता है। देव पूजन, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, त्याग(दान), तप यह छह आवश्यक कर्म करता हैं और गृहस्थ अवस्था में करने योग्य जो-जो विशुद्ध आचरण अरहंत भगवान् द्वारा कहे गए हैं उन समस्त आचरणों का आलस्य रहित होकर पालन करता है।
• पारिव्राज्य (मुनियों के व्रत)- घर से विरक्त होकर पुरुष का दीक्षा ग्रहण करना पारिव्राज्य है। परिव्राट् का जो निर्वाण दीक्षारूप भाव है उसे पारिव्राज्य कहते हैं। इस पारिव्राज्य परमस्थान में ममत्व भाव छोड़कर दिगम्बर रूप धारण करना पड़ता है। मोक्ष के इच्छुक पुरुष को शुभ तिथि, शुभ नक्षत्र, शुभ योग, शुभ लग्न और शुभ ग्रहों के अंश में निर्ग्रन्थ आचार्य के पास जाकर दीक्षा ग्रहण करनी चाहिए। जिसका कुल और गोत्र विशुद्ध है, चारित्र उत्तम है, मुख सुन्दर है और प्रतिभा अच्छी है ऐसा पुरुष ही जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण करने के योग्य माना गया है।
• सुरेन्द्रपद – इन्द्रपद प्राप्त करना ‘सुरेन्द्रता’ नाम का चैथा ‘परमस्थान’ होता है। जिन्होंने पारिव्राज्य नामक परम स्थान को प्राप्तकर अंत में संल्लेखना विधि से शरीर को छोड़ा है उन्हीं को यह ‘सुरेन्द्रता’ परम स्थान प्राप्त होता है। देवो के शरीर में नख, केश, रोम, चर्म, रुधिर, मांस, हड्डी एवं मल मूत्रादि धातुएं नहीं होती हैं।
• साम्राज्य (चक्रवर्ती पद)- जिसमें चक्ररत्न के साथ-साथ निधियों और रत्नों से उत्पन्न हुए भोगोपभोग रूपी सम्प्रदायों की परम्परा प्राप्त होती है ऐसे चक्रवर्ती के बड़े भारी राज्य को प्राप्त करना ‘साम्राज्य’ नाम का पांचवां परमस्थान कहलाता है। इस पद के भोक्ता छह खण्ड पृथ्वी पर एक छत्र शासन करने वाले चक्रवर्ती कहलाते हैं।
• अरहंत पद – अरहंत परमेष्ठी का भाव अथवा कर्मरूप जो उत्कृष्ट क्रिया है उसे आर्हन्त्य क्रिया कहते हैं। इस क्रिया में स्वर्गावतार आदि महाकल्याणरूप संपदाओं की प्राप्ति होती है। स्वर्ग में अवतीर्ण हुए तीर्थंकर महापुरुष को जो पंचकल्याणक रूप संपदाओं का मिलना है उसे ही आर्हन्त्य नाम का छठा परमस्थान कहा गया है।
• निर्वाण (मोक्ष)- संसार के बंधन से मुक्त हुए परमात्मा की जो अवस्था होती है उसे परिनिवृत्ति कहते हैं। इसका दूसरा नाम परनिर्वाण भी है। कर्मरूपी समस्त मल के नष्ट हो जाने से अन्तरात्मा की शुद्धि होती है उसे सिद्धि कहते हैं। यह सिद्धि ‘सिद्धिरूस्वात्मोपलब्धि’ के अनुसार अपने आत्मत्व का प्राप्तिरूप है अभावरूप नहीं है और न ज्ञान आदि गुणों का नाशरूप ही है। इस निर्वाण स्थान को प्राप्त कर लेना ही परिनिर्वाण नाम का सातवां परम स्थान माना गया है।
अनंत सागर
श्रावक
(पच्चीसवां भाग)
21 अक्टूबर, 2020, बुधवार, लोहारिया
अंतर्मुखी मुनि श्री पूज्य सागर जी महाराज
(शिष्य : आचार्य श्री अनुभव सागर जी)
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