जिस शरीर के साथ जन्म हुआ है, वह वास्तव में हमारा नहीं है। वहीं दुख और संसार परिभ्रमण का कारण है। शरीर पुद्रल (अजीव) है और आत्मा जीव है। इन दोनों के एक होने से आत्मा संसारी परिभ्रमण करती है। शरीर की प्राप्ति कर्मों के कारण हुई है। इन कर्मों से कैसे बचें, जिससे इस संसार मे शरीर के साथ जन्म होने के बाद भी यह शरीर यहीं रह जाए और आत्मा मोक्ष को प्राप्त कर जाए। इन सब के लिए चिंतन, ध्यान, मेरी आत्मा अलग है, शरीर अलग है। पंच इंद्रियों के विषय छोड़ने योग्य है। किन कारणों से संसार परिभ्रमण हो रहा है। इन सब का ज्ञान हुए बिना शाश्वत सुख अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति संभव नहीं है। इन सब का वर्णन जैन शास्त्र के चौथे अनुयोग द्रव्यानुयोग में किया गया है।
आचार्य समन्तभ्रद स्वामी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में द्रव्यानुयोग ग्रन्थ के स्वरूप का वर्णन करते हुए लिखा है कि…..
जीवाजीवसुतत्त्वे, पुण्यापुण्ये च बन्धमोक्षौ च । द्रव्यानुयोगदीपः, श्रुतविद्यालोकमातनुते ॥46॥
अर्थात- द्रव्यानुयोगरूपी दीपक जीव और अजीव रूप प्रमुख तत्वों को पुण्य और पाप को बन्ध और मोक्ष को तथा च शब्द से आसव, संवर और निर्जरा इन उपर्युक्त नौ पदार्थों के स्वरूप के कथनरूप ज्ञानरूप प्रकाश को फैलाता है। तत्त्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक, समयसार, प्रवचनसार, नियमसार आदि। मोक्षाभिलाषी पुरुष चारों अनुयोगों में श्रद्धा रखता है तथा उनके स्वाध्याय के द्वारा अपने श्रुतज्ञान को विस्तृत करता है।
अनंत सागर
श्रावकाचार ( 52वां दिन)
सोमवार, 22 फरवरी 2022, घाटोल
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