मुनि पूज्य सागर की डायरी से
मैं निर्मल हूं, मैं कर्ममल रहित हूं, मैं सिद्ध हूं और मैं ज्ञाता हूं। यह भावनाएं जीवन में शुभक्रिया के साथ हों तो आचरण और विचारों में स्वत: ही परिवर्तन आ जाता है। इन्हीं आचरण और विचारों से व्यक्ति की पहचान बनती है। शरीर एक माध्यम मात्र रह जाता है। ऐसा व्यक्ति बिना बोले ही सब कुछ बोल जाता है और उसकी बात भी सब लोग आसानी से समझ लेते हैं। मेरा यह मानना है कि शरीर अचेतन है, लेकिन शरीर के साथ जो आत्मा है उसमें चेतना व्याप्त है। शरीर का अस्तित्व आत्मा से और आत्मा का अस्तित्व शरीर से है। शरीर का सही उपयोग आत्मसाधना से ही है, भोग विलासता से नहीं। जो मान-सम्मान शरीर और आत्मा के पवित्रता से मिलता है, वह सदैव सुख देता है और इंसान की इंसानियत को बरकरार रखता है।
शास्त्रों में भी कहा गया है कि आत्मसाधना उतनी ही करो जितनी शरीर में शक्ति हो,लेकिन साधना करनी ही है। बिना साधना के सुख की कल्पना तो की जा सकती है, लेकिन वह कल्पना साकार नहीं होती। मैंने यह भी एहसास किया है कि साधना करने से आत्मा कर्ममल से मुक्त (धूल) हो जाती है और भोग विलासिता से आत्मा कर्ममल से मलिन हो जाती है। शरीर की वजह से आत्मा से बंधे कर्म आत्मा को परमात्मा बनने नहीं देते हैं। संसार के सभी प्राणी शरीर और आत्मा के असमंजस में हैं कि किसका कहां और कितना उपयोग किया जाए। सभी प्राणियों में मैं भी शामिल हूं और इसी असमंजस को समझे के लिए आत्मसाधना के मार्ग पर चलना शुरू किया है। इसके बाद मैं यह एहसास भी कर रहा हूं कि साधना के मार्ग पर चलने वाला ही इन दोनों के बीच के असमंजस को समझकर अपने अस्तित्व को समझ सकता है। लेकिन हां, साधना के मार्ग पर चलते-चलते दोनों में से एक को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। दोनों का संतुलन भी बनाए रखना पड़ता है।
बुधवार, 18 अगस्त, 2021 भीलूड़ा
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