शरीर के पांच भेद है ।
1. औदारिक शरीर
2. वैक्रियिक शरीर
3. आहारक शरीर
4. तेजस शरीर
5. कार्माण शरीर
1. औदारिक शरीर – गर्भ और सम्मूर्च्छन जन्म से जिसकी उत्पत्ति होती है ऐसे मनुष्य और तिर्यंचों के शरीर को औदारिक शरीर कहते हैं।
2. वैक्रियिक शरीर – उपपाद जन्म से जिसकी उत्पत्ति होती है, ऐसे देव और नारकियों के शरीर की वैक्रियिक शरीर कहते हैं।
3. आहारक शरीर – छठे गुणस्थानवर्ती मुनि के तपश्चरण के निमित्त से होने वाली आहारक ऋद्धि के फलस्वरूप तीर्थंकरों के दीक्षा कल्याणक आदि एवं जिन, जिनगृह, चैत्य-चैत्यालयों की वंदना के लिए अर्थात असंयम का परिहार झरने के लिए एवं सन्देह-निवारण के लिए मस्तक से धातु एवं संहनन से रहित समचतुरस्त्र संस्थान युक्त एक हाथ का सफेद रंग का जो पुतला निकलता है उसे आहारक शरीर कहते हैं।
4. तेजस शरीर – जिसके निमित्त से औदारिक आदि शरीरों में विशिष्ट प्रकार का तेज होता है, उसे तैजस शरीर कहते हैं। यह दो प्रकार का है
i. अनिस्सरणात्मक
ii .निस्सरणात्मक ।
• अनिस्सरणात्मक तेजस – यह समस्त संसारी जीवों के होता है।
• निस्सरणात्मक तेजस– यह छठे गुणस्थानवर्ती ऋद्धिधारक मुनि के होता है । यह भी दो प्रकार का होता है ।
1. शुभ तेजस 2. अशुभ तेजस
• शुभ तेजस – जगत् को रोग, दुर्भिक्ष आदि से दुखित देखकर जिसको दया उत्पन्न होती है, ऐसे महामुनि के शरीर के दाहिने कंधे से सफेद रंग का सौम्य आकार वाला एक पुतला निकलता है, जो 12 योजन में फैले दुर्भिक्ष, रोग आदि को दूर करके वापस आ जाता है।
• अशुभ तेजस – मुनि को तीव्र क्रोध उत्पन्न होने पर 12 योजन तक विचार की हुई विरुद्ध वस्तु को भस्म करके और फिर उस संयमी मुनि को भस्म कर देता है। यह मुनि के बाएँ कंधे से निकलता है। यह सिंदूर की तरह लाल रंग का बिलाव के आकार का 12 योजन लंबा सूच्यंगुल के संख्यात भाग प्रमाण मूल विस्तार वाला और नौ योजन चौड़ा रहता है।
5. कार्माण शरीर – कर्मो के समूह को कार्माण शरीर कहते हैं।
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