धर्म करने के बाद भी दुःख पीछा नही छोड़ता है तो मन विचलित हो जाता है। नकारात्मक विचार आने लगते हैं। देव, शास्त्र, गुरु से भी अनेक प्रश्न पूछने का मन होता है। धर्म के सिद्धांतों, क्रियाओं पर भी पर प्रश्न चिन्ह खड़े होने लग जाते हैं। इस स्थिति में धर्मात्मा मनुष्य भी धर्म पर आस्था, श्रद्धा, विश्वास खो देते हैं।
इन स्थितियों का कारण देखें तो एक ही उत्तर सामने आता है- कर्मो का दोष। लेकिन जब बार-बार यह सुनते है कि सब कर्म का फल है तो फिर प्रश्न उठता है कि मैं इतना धर्म करता हूं फिर भी दुखी हूं और कोई कुछ भी धर्म नही करता फिर भी सुखी है, तो ये कर्म का फल कैसे हुआ? कर्म तो मैं अच्छा कर रहा हूं लेकिन उसका फल मुझे मिलता ही नही है। इस प्रकार के विचार भी आते हैं कि कर्म-वर्म कुछ नही होता, बस मन साफ रखो सब अच्छा होगा। कुल मिलाकर मन अशांत ही होता रहता है।
सच तो यह है कि जो कुछ भी हो रहा है वह सब कर्म के कारण ही हो रहा है। कर्म को समझने के लिए एक संकल्प करना कि जो भी अच्छा कार्य होगा उसके फल की इच्छा नही करूंगा या फल की इच्छा से कोई भी अच्छा कार्य नही करूंगा। जो भी कार्य करूंगा वह मनुष्य जन्म की सार्थकता के लिए करूंगा। क्योंकि फल की इच्छा से किया गया कार्य ही मन को विचलित करता है। राम ने रावण से युद्ध धर्म की रक्षा के लिए किया तो राम का मन अशांत नही था पर रावण ने राम से युद्ध सीता को अपना बनाने के लिए किया तो रावण का मन विचलित रहा और वह उसी विचलन के कारण ही बिना सोच विचारे कार्य करता चला गया। अंत मे क्या हुआ ….यह आप सब जानते है, इसलिए दुःखों को नही अपने कर्मो पर ध्यान दोगे तो दुःख भी नही रहेगा और मन भी शांत रहेगा तथा नकारात्मक विचार नहीं आएंगे।
अनंत सागर
कर्म सिद्धांत
(चौतीसवां भाग)
22 दिसम्बर, 2020, मंगलवार, बांसवाड़ा
अंतर्मुखी मुनि श्री पूज्य सागर जी महाराज
(शिष्य : आचार्य श्री अनुभव सागर जी)
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