कर्म विचित्र हैं। इनकी व्यवस्था भी विचित्र है। कब, क्या अंदर में भाव बदल जाएं, पता ही नहीं चलता? अंदर क्या चल रहा है, बाहर क्या चल रहा है, कुछ पता ही नहीं चलता? राम ने स्वयं ही सीता को वन जाने के आदेश दिया और सीता से मिले तक नहीं। और जब सेनापति सीता को वन में छोड़कर आया तो राम क्या विचार करते हैं, इसका वर्णन पद्मपुराण के पर्व 99 में आया है। आइए, जानते हैं राम ने क्या विचार किया…
सेनापति कृतान्तवक्त्र ने जब सीता का संदेश राम को दिया तो उसके बाद राम दुःखी हुए और उन्हें अपनी गलती पता चली। राम विचार करने लगे कि मेरे हृदय ने दुर्जन के वचनों के वशीभूत होकर यह अत्यंत निन्दित कार्य क्यों कर डाला? सीता, तू तो सर्वोत्तम शील को धारण करने वाली है, सुन्दरी है, तेरा वार्तालाप हितकारी तथा प्रिय है। तेरा मन पापरहित है। तू अपराध से रहित थी, फिर भी निर्दयी होकर मैंने तुझे छोड़ दिया। मेरे हृदय में वास करने वाली तू किस दशा को प्राप्त हुई होगी। महाभयदायक एवं दुष्ट वन्य पशुओं से भरे वन में तू किस प्रकार रहेगी? तुम तो लज्जा और विनय कूट-कूटकर भरे हुए हैं। हाय, मेरी देवि तू कहां गई? हे साध्वी, तुझे वन में छोड़ा गया है, अतः यह दुःख पहले दुःख से भी कहीं अधिक कष्टकर है। रात्रि के अंधकार में तुम सो रही होगी, तो जानवर कहीं तुमपर हमला न कर दे। पूरा वन मरीछ,भालू,श्रृंगाल, खरगोश और उल्लुओं से व्याप्त है। जहां मार्ग दिखाई नहीं देता, ऐसे ऊबड़- खाबड़ वन में दुःखी होती हुई तू कैसे रहेगी?कृतान्त, क्या सचमुच ही तुमने प्रिया को अत्यंत भयानक वन में छोड़ दिया है? तुम ऐसा कैसे कर सकते हो? तुम कहो कि तुमने सीता को नही छोड़ा है। इस प्रकार सीता का ध्यान करते करते राम मूर्च्छा को प्राप्त हो गए। बड़ी देर बाद सचेत को प्राप्त हुए। कर्मों का खेल संसार में कोई भी नहीं समझ सकता है।
अनंत सागर
कर्म सिद्धान्त
29 जून 2021,मंगलवार
भीलूड़ा (राज.)
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