धर्मानुरागी बंधुओं आज स्वामी विवेकानंद जयंती पर उनकी पुस्तक “कर्मयोग“ के पहले अध्याय “कर्म का चरित्र पर प्रभाव“ की कुछ खास बातें पढ़िए और प्रेरणा लीजिए
कर्म शब्द “कृ“ धातु से निकलता है और कृ धातु का अर्थ है करना। जो कुछ किया जाता है, वही कर्म है। इस शब्द का पारिभाषिक अर्थ “कर्मफल“ भी होता है। दार्शनिक दृष्टि से देखा जाए तो इसका अर्थ कभी कभी वे फल होते हैं, जिनका कारण हमारे पूर्व कर्म रहते हैं। मनुष्य का अंतिम ध्येय सुख नहीं है ज्ञान है, क्योंकि सुख और आनंद का एक ना एक दिन अंत हो ही जाता है, इसलिए सुख को चरम लक्ष्य मान लेना मनुष्य की भारी भूल है।
यदि किसी मनुष्य का चरित्र देखें तो प्रतीत होगा कि वास्तव में वह उसकी मानसिक प्रवृत्तियों और मानसिक झुकाव की समष्टि ही है। उसके चरित्र गठन में सुख और दुख समान रूप से नजर आएंगे। चरित्र को एक विशिष्ट ढांचे में ढालने में अच्छाई और बुराई दोनों का समान अंश रहता है। यदि हम संसार के महापुरूषों के चरित्र का अध्ययन करें तो पाएंगे कि अधिकांश दशाओं में सुख की अपेक्षा दुख ने और सम्पत्ति की अपेक्षा ने दरिद्रता ने ही उन्हें अधिक शिक्षा दी है।
ज्ञान मनुष्य में अंतर्निहित है। ज्ञान बाहर से नहीं आता। सब अंदर ही है। मनुष्य जो कुछ सीखता है, वह वास्तव में अविष्कार करना ही है। अविष्कार का अर्थ है मनुष्य का अपनी अनंत ज्ञानस्वरूप आत्मा के उपर से आवरण को हटा लेना। विश्व का असीम पुस्तकालय तुम्हारे मन में ही विद्यमान है। समस्त ज्ञान चाहे वह व्यवहारिक या परमार्थिक, मनुष्य के मन में ही निहित है। बहुधा यह प्रकाशित ना हो कर ढंका रहता है। जब यह धीरे-धीरे हटता है तो हम कहते हैं कि हमें ज्ञान हो रहा है। जिस मनुष्य पर से आवरण उठता जा रहा है वह अन्य व्यक्तियों की अपेक्षा अधिक ज्ञानी होता है और जिस पर यह आवरण पड़ा रहता है, वह अज्ञानी है। जिस पर से यह आवरण पूरी तरह चला जाता है, वह सर्वज्ञ पुरूष कहलाता है।
हमें कर्म करते रहना चाहिए तथा यह पता लगाना चाहिए कि उस कार्य के पीछे हमारा हेतु क्या है। आरम्भ में हमारे सभी कार्यो का हेतु स्वार्थपूर्ण रहता है, लेकिन धीरे-धीरे यह स्वार्थपरायणता अध्यवसाय से नष्ट हो जाएगी और अंत में वह समय आ जाएगा जब हम वास्तव में स्वार्थ से रहित हो कर कार्य करने के योग्य हो जाएंगे।
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