आचार्य श्री शांतिसागर महाराज का मुनि अवस्था का दूसरा चातुर्मास नसलापुर में हुआ था। उसके बाद आचार्य श्री का विहार ऐनापुर हुआ। वहां एक घटना घटी। हुआ यूं कि आचार्य श्री आहार पर निकले और एक श्रावक ने अपने घर आहार की तैयारी के बिना आचार्य श्री को आहार के लिए पढ़गाहन कर लिया। उस दिन विधि भी वहीं मिल गई और आचार्य श्री आहार के लिए तैयार हो गए। अब वह श्रावक अंदर ही अंदर घबरा गया कि अब क्या करूंगा क्योंकि दिगम्बर साधु एक घर में तैयार भोजन को दूसरे घर नहीं कर सकते। वे जिस घर में पढ़गाहन हुआ है, केवल वहीं पर तैयार भोजन का आहार कर सकते हैं। जिस श्रावक ने आचार्य श्री को पढ़गाहन किया, उस श्रावक के घर तो शुद्ध आहार बना ही नहीं था। उसने चालाकी से दूसरे के घर में बना आहार अपने घर लाकर मुनि राज को दे दिया और वह आहार महाराज श्री ने ग्रहण भी कर लिया। आहार के बाद जब महाराज श्री को पता चला कि वह जो आहार ग्रहण करके आए हैं, उसमें दोष था और वह दूसरे के घर बना हुआ था तो इससे आचार्य महाराज का मन दुखी हो गया। उन्होंने इस दोष का प्रायश्चित करते हुए उस दिन मध्याह्न में सूर्य की प्रचंड धूप में खड़े होकर सामायिक की। धूप इतनी तेज थी कि उसमें एक मिनिट भी खड़ा रहा नहीं जा सकता था लेकिन आचार्य श्री शांत भाव से धूप में खड़े रहे। इतनी गर्मी शरीर के लिए कष्टदायक होती है लेकिन महाराज श्री ने शांति से उसे सहन किया। इसके बाद आठ दिन तक उन्होंने दूध के सिवाय सर्व प्रकार का आहार छोड़ दिया। इस प्रकार की प्रवृत्ति से आचार्य श्री ने श्रावकों को आगमशास्त्र से परिचित करवाया, ताकि आगे से कोई श्रावक ऐसा न करे। इस घटना से आज के श्रावक भी एक सबक ले सकते हैं। ऐसे आचार्य श्री को हम सभी का शत-शत नमन है।
07
Jun
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