किसी वणिक के तीन पुत्र थे। वणिक ने उनकी बुद्धि, व्यवसाय और पौरुष की परीक्षा के लिए एक-एक रुपए देकर कहा कि इस रुपए से व्यापार करके शीघ्र लौट आएं।
तीनों पुत्र अलग-अलग नगर रवाना हो गए। पहले वणिकपुत्र ने सोचा, ‘मुझे बहुत सा धन कमाकर पिताजी को प्रसन्न करना चाहिए। फिर पुरुषार्थ से हीन पुरुष की दशा नरकट की घास के समान होती है। यह समय मेरे केवल पुरुषार्थ करने का है।’ यह सोचकर वह सभी व्यसनों से दूर रहकर केवल भोजन और वस्त्र पर पैसा खर्च बड़े परिश्रम से धन कमाने लगा। उसे बहुत लाभ हुआ।
दूसरे पुत्र ने सोचा, ‘हम लोगों के पास बहुत धन है लेकिन हमें मूलधन बचाकर रखना चाहिए।’ इसलिए वह धन कमाता, उसे खर्च करता लेकिन मूलधन को हाथ न लगाता।
तीसरे पुत्र ने सोचा, ‘हमारे पास पहले से ही इतना धन है। अब और धन कमाने से क्या लाभ।’
यह सोचकर उसने सारा धन व्यसनों में खर्च कर दिया।
कुछ समय बाद तीनों अपने घर लौटे।
जिसने सारा धन खर्च कर दिया था, वह नौकर की भांति रहने लगा।
पहला पुत्र भोजन-वस्त्र से संतुष्ट रहता हुआ अपने घर के काम में लग गया। वह न दान-पुण्य कर सकता और न ही धन का अच्छी तरह उपभोग कर सकता था।
दूसरे पुत्र के बहुत से घर-बार हो गए। वह प्रचुर धन का स्वामी बन गया और साथ में शहर का प्रतिष्ठित नागरिक भी।
इस कहानी का नैतिक मूल्य यह है कि केवल धन होना ही पर्याप्त नहीं है। धन को पुण्य कार्य में लगाना जरूरी है। अगर धन का सही उपभोग न हो तो या तो वो नष्ट हो जाता है या बिना उपयोग के पड़ा रह जाता है। धन का गतिमान होना जरूरी है।
Give a Reply