तीर्थंकर की वाणी को सहजता से समझने के लिए उसे चार भागों में विभाजित कर प्रकाशन किया गया है। जो प्रकाशन हुआ है वही तीर्थंकर की वाणी का पूरा हिस्सा है ऐसा नहीं है। जो प्रकाशन हुआ है वह तो बहुत ही छोटा सा अंश है। स्वयं कल्पना करना कि तीर्थंकर की वाणी में वह सब कहा हुआ है जो कर्म निर्जरा का कारण है और परमात्मा बनने में महत्त्वपूर्ण है। प्रथम भाग को प्रथमानुयोग कहते हैं। इसमें उन महापुरुष के जीवन चरित्र का वर्णन किया गया है, जिनसे हमें यह शिक्षा मिल सके कि पुण्य-पाप क्या है और कैसा आचरण करने से कैसे कैसे दुख होते हैं।
आचार्य समन्तभ्रद स्वामी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में प्रथमानुयोग ग्रन्थ के स्वरूप का वर्णन करते हुए लिखा है कि…
प्रथमानुयोगमर्थाख्यानं चरितं पुराणमपि पुण्यम् ।
बोधिसमाधिनिधानं, बोधति बोधः समीचीनः ॥43॥
अर्थात- जिसमें एक पुरुष से सम्बन्ध रखने वाली कथा होती है, उसे चरित कहते हैं और जिसमें त्रेशठ शलाका पुरुषों से सम्बन्ध रखने वाली कथा होती है, उसे पुराण कहते हैं। चरित और पुराण, दोनों ही प्रथमानुयोग शब्द से कहे जाते हैं। यह प्रथमानुयोग उपन्यास की तरह कल्पित अर्थ का वर्णन नहीं करता अपितु परमार्थ विषय का वर्णन करता है इसलिये इसे अर्थाख्यान कहते हैं। इसके पढ़ने और सुनने वाले जीवों को पुण्यबन्ध होता है, इसलिये इसे पुण्य कहते हैं। इसके सिवाय यह प्रथमानुयोग बोधि अर्थात् रत्नत्रय की प्राप्ति और समाधि अर्थात् धर्म्य और शुक्लध्यान की प्राप्ति का निधान है। सम्यग्ज्ञान ऐसे प्रथमानुयोग को जानता है।
यह प्रथमानुयोग बाँचने और सुनने वाले जीवों के मानसिक पवित्रता का कारण होने से पुण्य रूप होता है। जम्बूस्वामी चरित, प्रद्युम्नचरित महापुराण, उत्तरपुराण, पद्मपुराण आदि इसके उदाहरण हैं ।
अनंत सागर
श्रावकाचार ( 49वां दिन)
शुक्रवार, 18 फरवरी 2022, बांसवाड़ा
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