हम धर्मगुरुओं से सुनते और शास्त्रों में पढ़ते आ रहे है कि शरीर और आत्मा अलग-अलग हैं। अशुभ कर्मो से दोनों एकमेक हो गए हैं। अशुभ चिंतन, नकारात्मक सोच, कषाय आदि के कारण दोनों इस तरह एकमेक हो गए हैं कि लगता ही नही कि अलग-अलग हैं।
संसार के समस्त प्राणियों के शरीर और आत्मा का अनादिकालीन संबंध है। यह तब तक रहेगा जब तक हम संसार को छोड़कर मोक्ष नहीं चले जाते हैं। शरीर और आत्मा दोनो के मिलने से हमें संसार के सुख-दुःख भोगने पड़ते हैं। सुख और दुख भी इसलिए भोगने पड़ते है कि शरीर और आत्मा का स्वभाव अलग-अलग है। दोनो के मिलने से स्वभाव में विकृति आ जाती है। शरीर पुद्गल है जिसका स्वभाव सड़ना-गलना है पर आत्म का स्वभाव शाश्वत है। पुद्गल शरीर तो नष्ट हो कर पंचतत्व में विलीन हो जाता है, पर आत्म शाश्वत है वह मरती नही है। बस कर्मो के कारण इसे अलग-अलग पर्याय में अलग-अलग शरीर मिलता रहता है। जब समस्त कर्म नष्ट हो जाते हैं तो शरीर और आत्मा अलग हो जाते हैं और जीव मोक्ष को चला जाता है तथा शाश्वत सुख को प्राप्त करता है। यहां पर सुख और दुख नही बल्कि शाश्वत सुख ही होता है। शरीर और आत्मा को कुछ इस तरह समझिए-
सांसारिक जीवन में विवाद तभी होता है जब दो मनुष्य आपस मे मिलते हैं, उठते-बैठते है, संबधं रखते है। दोनो के विचार,सोच आपस में टकराते है। पर जब व्यक्ति अकेले उठता-बैठता है, स्वयं का चिंतन करता है तो कोई विवाद नही होता है और वह सुखी रहता है।
बस कुछ ऐसा ही शरीर और आत्मा का मामला है। जब वह दोनों अलग-अलग हैं तो कोई कर्म बन्ध नही होता। हमें जीवन में शाश्वत सुख चाहिए तो दोनो को अलग करने के लिए तप आदि करना पड़ेगा लेकिन जब तक संसार में तब तक दोनो एकमेक हैं और तब तक हमें शरीर और आत्मा के स्वरूप को समझकर उसका चिंतन करना होगा। जो कर्म रूप में आ रहा है वह दोनों के एकमेक होने का फल है। धार्मिक अनुष्ठान इसीलिए करते है कि यह दोनों अलग-अलग हो जाएं।
अनंत सागर
अंतर्भाव
(इकतीसवां भाग)
27 नवम्बर, 2020, शुक्रवार, बांसवाड़ा
अंतर्मुखी मुनि श्री पूज्य सागर जी महाराज
(शिष्य : आचार्य श्री अनुभव सागर जी)
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