सम्यकदर्शन के सातवें वात्सल्य अंग में प्रसिद्ध व्यक्तित्व की कहानी
अवन्ति देश की उज्जयिनी नगरी में श्रीवमां राजा राज्य करता था। उसके बलि, बृहस्पति, प्रहलाद और नमुचि नाम के चार मंत्री थे। वहां एक समय शास्त्रों के धारक, दिव्यज्ञानी तथा सात सौ मुनियों से सहित अकम्पनाचार्य आकर उद्यान में ठहर गये। अकम्पनाचार्य ने समस्त संघ को मना कर दिया कि राजा आदि के आने पर किसी से वार्तालाप न किया जाए, अन्यथा समस्त संघ का नाश हो जायेगा।
राजा अपने धवलगृह पर बैठा था, उसने पूजा की सामग्री हाथ में लेकर जाते हुए नागरिकों को देखा और मंत्रियों से पूछा कि ये कहां जा रहे हैं। मंत्रियों ने कहा नगर के बाहर नग्न साधु आये हैं, वहीं जा रहे हैं। राजा भी मंत्रियों सहित वहां गया। राजा ने समस्त मुनियों की वंदना की, परन्तु किसी ने भी आशीर्वाद नहीं दिया। दिव्य अनुष्ठान के कारण ये साधु अत्यन्त निःस्पृह है, ऐसा विचार कर जब राजा लौटा तो खोटा अभिप्राय रखने वाले मंत्रियों ने यह कह कर उन मुनियों का उपहास किया कि ये बैल हैं, कुछ भी नहीं जानते हैं, मूर्ख हैं इसीलिये मौन से बैठे हैं। ऐसा कहते हुए मंत्री राजा के साथ जा रहे थे कि उन्होंने चर्या कर आते श्रुतसागर मुनि को देखा और कहा कि यह तरुण बैल पेट भर कर आ रहा है। यह सुन मुनि ने मंत्रियों से शास्त्रार्थ कर उन्हें हरा दिया। मुनि ने यह सब समाचार अकम्पनाचार्य से कहा। अकम्पनाचार्य ने कहा कि तुमने समस्त संघ को मरवा दिया। यदि शास्त्रार्थ के स्थान पर जाकर तुम रात्रि को अकेले खड़े रहते हो तो संघ जीवित रह सकता है और तुम्हारे अपराध की शुद्धि हो सकती है। श्रुतसागर मुनि वहां जाकर कायोत्सर्ग स्थित हो गये।
क्रोध से भरे मंत्री रात्रि में समस्त संघ को मारने जा रहे थे कि उन्होंने कायोत्सर्ग से खड़े मुनि को देख विचार किया कि जिसने हमारा पराभव किया है, वही मारने योग्य है ऐसा विचार कर चारों ने एक साथ खड्ग ऊपर उठाये, परन्तु नगर देवता ने उन सबको कील दिया। प्रातः सब लोगों ने उन मंत्रियों को देखा। मंत्रियों की इस कुचेष्टा से राजा बहुत क्रुद्ध हुआ, परन्तु उन्हें मारा नहीं केवल गर्दभारोहण आदि कराकर निकाल दिया।
तदनंतर हस्तिनागपुर नगर में राजा महापदा राज्य करते थे। उनकी रानी का नाम लक्ष्मीमती था, उनके दो पुत्र थे – पद्म और विष्णु। एक समय राजा पद्म नामक पुत्र को राज्य देकर विष्णु के साथ श्रुतसागर चन्द्र नामक आचार्य के पास मुनि हो गये। बलि आदि आकर पद्म राजा के मंत्री बन गये। उसी समय कुम्भपुर के दुर्ग में राजा सिंहबल रहता था। वह अपने दुर्ग के बल से राजा पद्म के देश में उपद्रव करता था, राजा पद्म उसे पकड़ने की चिंता में दुर्बल होता जाता था। एक दिन बलि ने दुर्बलता का कारण पूछा। कारण सुनकर तथा आज्ञा प्राप्त कर बलि अपनी बुद्धि से दुर्ग को तोड़ तथा सिंहबल को लेकर आ गया। उसने राजा पद्म को सिंहबल सौंप दिया। राजा पद्म ने संतुष्ट होकर कहा कि तुम अपना वांछित वर माँगो, बलि ने कहा कि जब माँगूं तब दिया जाए।
तदनंतर कुछ दिनों में विहार करते हुए वे अकम्पनाचार्य आदि सात सौ मुनि उसी हस्तिनागपुर में आये। बलि आदि मंत्रियों ने उन्हें पहचान कर विचार किया कि राजा इनका भक्त है। इस भय से उन्होंने उन मुनियों को मारने के लिये राजा पद्म से अपना पहले का वर माँगा कि हम लोगों को सात दिन का राज्य दिया जाए। राजा पद्म उन्हें राज्य देकर अन्तःपुर में चला गया। इधर बलि ने आतापनगिरि पर कायोत्सर्ग से खड़े मुनियों को बाड़ी से वेष्टित कर यज्ञ करना शुरू किया। मुनियों को मारने के लिये भारी उपसर्ग किया। मुनि दोनों प्रकार का संन्यास लेकर स्थिर हो गये।
बाद मंे मिथिलानगरी में आधी रात बाहर निकले श्रुतसागर चन्द्र आचार्य ने श्रवण नक्षत्र को देख अवधिज्ञान जानकर कहा कि महामुनियों के ऊपर उपसर्ग हो रहा है। यह सुन पुष्पधर नामक विद्याधर क्षुल्लक ने पूछा कि कहाँ किन पर महान उपसर्ग हो रहा है? उपसर्ग कैसे नष्ट हो सकता है? क्षुल्लक द्वारा पूछे जाने पर कहा कि धरणिभूषण पर्वत पर विक्रियाऋद्धि के धारक विष्णुकुमार मुनि स्थित है, वे उपसर्ग नष्ट कर सकते हैं। यह सुन क्षुल्लक ने उनके पास जाकर सब समाचार कहा कि मुझे विक्रियाऋद्धि है क्या? ऐसा विचार कर विष्णुकुमार मुनि ने अपना हाथ पसारा तो वह पर्वत को भेदकर दूर तक चला गया। तदनंतर विक्रिया का निर्णय कर उन्होंने हस्तिनागपुर जाकर राजा पद्म से कहा कि तुमने मुनियों पर उपसर्ग क्यों कराया ? आपके कुल में ऐसा कार्य किसी ने नहीं किया। राजा पद्म ने कहा कि क्या करूँ मैंने पहले इसे वर दे दिया था। विष्णुकुमार मुनि ने एक बौने ब्राह्मण का रूप बनाकर उत्तम शब्दों द्वारा वेदपाठ करना शुरू किया, बलि ने कहा कि तुम्हें क्या दिया जाए? बौने ब्राह्मण ने कहा कि तीन डग भूमि दो। पगले ब्राह्मण देने को बहुत है और कुछ माँग, इस प्रकार बार-बार लोगों के कहे जाने पर भी वह तीन डग भूमि ही माँगता रहा। तदनन्तर हाथ में संकल्प का जल लेकर जब उसे विधिपूर्वक तीन डग भूमि दे दी गई तब उसने एक पैर मेरु पर रखा, दूसरा पैर मानुषोत्तर पर्वत पर रखा और तीसरे पैर के द्वारा देवविमानों आदि में क्षोभ उत्पन्न कर उसे बलि की पीठ पर रखा तथा बलि को बाँधकर मुनियों का उपसर्ग दूर किया। तदनंतर वे चारों मंत्री राजा पद्म के भय से आकर विष्णुकुमार मुनि तथा अकम्पनाचार्य आदि मुनियों के चरणों में गिरकर क्षमा माँगने लगे। वे मंत्री श्रावक बन गये।
कहानी का सार है कि सम्यक दृष्टि मनुष्य को कपट रहित आंतरिक स्नेह रखना चाहिए। यही वात्सल्य अंग है। यह गुण सेवा एवं विनय का भाव पैदा करता है।
अनंत सागर
श्रावकाचार ( 25 वां दिन)
मंगलवार, 25 जनवरी 2022, बांसवाड़ा
Give a Reply