बच्चों को संस्कार उनके माता-पिता से मिलते हैं। जैन धर्म में संस्कारों का बीजारोपण करने के लिए 45 दिन के बच्चे को मंदिर ले जाकर अष्टमूलगुणों (मद्य, मांस, मधु, बड़, पीपल, पाकर, कठूमर, गूलर का त्याग ) धारण करवाते हैं । बच्चे के आठ वर्ष का होने तक यह माता-पिता की जिम्मेदारी होती है, वे बच्चे को इसके बारे में बताएं कि तुम्हारा अष्टमूलगुणों का नियम है । ऐसे ही अपूर्व संस्कार सातगौड़ा को उनकी माता सत्यवती और पिता भीमगौड़ा से मिले थे। माता सत्यवती गांव आने वाले हर महात्मा, दिगंबर मुनिराज की आवभगत बड़े ही प्रेम और श्रद्धा से करती थीं । यहीं बालक सातगौड़ा उनकी सेवा में तत्पर रहते और संतों-महात्माओं के जीवन में धर्म के विकसित और परिपक्व स्वरूप को देखा करते थे। यहीं से उन्हें जीवन को उज्ज्वल बनाने की प्रेरणा भी मिलती थी। कहते हैं कि माता किसी भी बालक की प्रथम गुरु होती है और यह बात हमें सातगौड़ा के जीवन पर नजर डालने पर भी दिखाई देती है। सातगौड़ा अपनी विदुषी माता से तीर्थंकरों के चरित्र, मोक्षगामी पुरुषों की बातें सुनते और शिक्षा प्राप्त करते थे। इसी वजह से आगे चलकर उनमें मुनि बनने का भाव जाग्रत हुआ। परिवार का स्वस्थ, धार्मिक वातावरण किस तरह से किसी बालक के जीवन पर सकारात्मक प्रभाव डालता है, यह हम सातगौड़ा के परिवार से सीख सकते हैं।
15
May
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