पद्मपुराण पर्व तिरासी में वैराग्य भाव को दृढ़ करने वाला चिंतन भरत ने किया है, आइए उस चिंतन को पढ़ते हैं-
जिस प्रकार शिकारी से भय को प्राप्त हुआ हिरण सुन्दर स्थानों में धैर्य को प्राप्त नहीं होता उसी प्रकार भरत भी उक्त प्रकार के सुन्दर स्थानों में धैर्य को प्राप्त नहीं हो रहा था। वह सोचता रहता था कि मनुष्य पर्याय बड़े दुःख से प्राप्त होती है फिर भी इसकी चाल पानी की बूँद के समान है। यौवन फेन के समूह के समान भंगुर तथा अनेक दोषों से संकट पूर्ण है। भोग अन्तिम काल में विरस अर्थात् रस से रहित है। जीवन स्वप्न के समान है और भाई-बन्धुओं का सम्बन्ध पक्षियों के समागम के समान है। ऐसा निश्चय करने के बाद भी जो मनुष्य मोक्ष-सुखदायी धर्म धारण नहीं करता है वह पीछे जरा (बुढापा) से जर्जर चित्त हो शोक रूपी अग्नि से जलता रहता है। जो मूर्ख मनुष्यों को प्रिय है, अपवाद अर्थात् निन्दा का कुलभवन है एवं सन्ध्या के प्रकाश के समान विनश्वर है ऐसे नवयौवन में क्या राग करना है ? जो अवश्य ही छोड़ने योग्य है, नाना व्याधियों का कुलभवन है, और रजवीर्य जिसका मूल कारण है ऐसे इस शरीर रूपी यन्त्र में क्या प्रीति करना ? । जिस प्रकार ईंधन अग्नि नहीं तृप्त होती है और जल से समुद्र नहीं तृप्त होता है उसी प्रकार जब तक संसार है तब तक सेवन किये हुए विषयों से यह प्राणी तृप्त नहीं होता है। जिसकी बुद्धि पाप में आसक्त हो रही है ऐसा पापी मनुष्य कुछ भी नहीं समझता है और लोभी मनुष्य पतंग के समान दारुण दुःख को प्राप्त होता है।
अनंत सागर
अंतर्भाव
21 मई 2021, शुक्रवार
भीलूड़ा (राज.)
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