व्यक्ति के भौतिक रूप नहीं, बल्कि उसमें समाहित जीवन मूल्यों का महत्व है। भौतिक रूप क्षणिक है, लेकिन गुण, सिद्धांत और जीवन मूल्य सदियों तक व्यक्ति को इस दुनिया में जिंदा रखते हैं। अतः संसार में रहते हुए सम्यक दर्शन के साथ अपने गुणों को प्रकट करना चाहिए।
मनुष्य के अंदर अनंत गुण हैं, लेकिन वह कषायों के कारण विकार को प्राप्त हो जाते हैं। अगर विकारों को दूर कर लिया जाए तो जीवन सम्यकत्व को प्राप्त कर लेता है और गुणों की आभा प्रकट हो जाती है। विकारों को दूर करने के लिए सम्यक दर्शन के साथ भगवान की आराधना करनी चाहिए। जैन धर्म सहित अन्य धर्मों में भी व्यक्ति विशेष की नहीं, बल्कि गुणों की पूजा होती है। जहां पर गुण होते हैं, वहां नाम की आवश्यकता नहीं होती हैं।
आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में आप्त के नाम बताते हुए कहा है कि …
परमेष्ठी परञ्ज्योतिर्विरागो विमलः कृती ।
सर्वज्ञोऽनादिमध्यान्तः सार्वः शास्तोपलाल्यते ।।7।।
अर्थात – ऐसे ही आप्त को परमेष्ठी, परंज्योति, वीतराग, विमल, कृती, सर्वज्ञ, आदि-मध्य-अंत से रहित, अनादि-अनंत और सार्व (सबका हितैषी) शास्ता या मोक्ष मार्ग प्रणेता कहते हैं।
इसी प्रकार तत्त्वार्थ सूत्र के मंगलाचरण में भी कहा गया है कि –
मोक्ष-मार्गस्य नेतारं, भेत्तारं कर्म-भूभृताम।
ज्ञातारं विश्व-तत्त्वानां, वन्दे तद्-गुण-लब्धये॥
अर्थ – जो मोक्षमार्ग का प्रवर्तक है, कर्मरूपी पर्वतों का भेदन करने वाला है और समस्त तत्त्वों को जानता है, उसे मैं उन गुणों की प्राप्ति के लिए नमस्कार करता हूँ।
भगवान के 1008 नामों का वर्णन भी शास्त्र में मिलता है, जिससे सहस्त्रनाम कहते हैं। इन नामों का अर्थ भी अलग-अलग है, पर भाव सब का एक ही है कि आप कर्ममल से रहित हो। सम्यक दर्शन की प्राप्ति के लिए मनुष्य को अपने दायित्वों के साथ-साथ ईश आराधना अवश्य करनी चाहिए। इसी से वह गुणशाली होकर अपने अस्तित्व को स्थायी बना सकता है। यही उसकी वास्त्विक और शाश्वत पहचान है ।
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