01
Jun
पद्मपुराण के पर्व 89 में एक प्रसंग आया है-युद्ध मैदान में युद्ध के दौरान ही वैराग्य हो गया और दीक्षा ले ली। यही तो कर्मों का खेल है जो मोह के कारण हम समझ नहीं पाते हैं। आओ जानते हैं युद्ध के मैदान में क्या हुआ…
मधुरा नगर के राजा मधु को जीतने के लिए शत्रुघ्न युद्ध के लिए अयोध्या से निकला। मधुरा में युद्ध प्रारम्भ हुआ। युद्ध में मधु का पुत्र मृत्यु को प्राप्त हो गया। इसके बाद शूल रत्नधारी राजा मधु और शत्रुघ्न में युद्ध प्रारम्भ हुआ। भाग्य और कर्म की बात है- युद्ध करते- करते ही मधु को मुनियों के वचनों का स्मरण हो आया। वह विचार करने लगा कि यह सांसारिक कार्य क्षणभंगुर तथा दुःख देने वाले हैं। इस संसार में एक ही कार्य प्रशंसायोग्य है और वह है धर्मकार्य। मैं जब स्वतंत्र था, तब मुझे सद्बुद्धि क्यों नहीं आई? अब जबकि मैं शत्रु के सामने हूं तब मैं अभागा क्या करूँ ? भवन जलने लगता है तब कुँआ खुदवाने से क्या मतलब? अब मैं निराकुल हो मन को शुभकार्य में लगाऊं, यही आत्महित है। पंच परमेष्ठि को मन,वचन,काय से नमस्कार हो। भगवान के द्वार कहे जाने वाले चार मंगल ही मंगलस्वरूप है। मैं जीवनपर्यन्त के लिए सावद्य (पाप) योग का त्याग करता हूं। उसके विपरीत शुद्ध आत्मा का त्याग नहीं करता हूं तथा प्रत्याख्यान में तत्पर होकर पूर्वोपाजित पापकर्म की निंदा करता हूं। इस संसार में मैंने जो पाप किया है वह मिथ्या हो। अब मैं तत्त्व विचार करने में लीन होता हूं। मैं छोड़ने योग्य समस्त कार्यों को छोड़ता हूं और ग्रहण करने योग्य सब कार्यों को ग्रहण करता हूं। इस प्रकार मधु ने ध्यान के दौरान अंतरंग तथा बहिरंग दोनों प्रकार के परिग्रह छोड़ दिए और हाथी पर बैठे- बैठे ही केश उखाड़कर फेंक दिए। मधु मुनि हो गया। शत्रुघ्न ने यह सब देखकर मधु को नमस्कार किया और कहा मुझ पापी को क्षमा कीजिए। जो अप्सराएं युद्ध देखने आईं थीं, वह पुष्पवर्षा करने लगीं। समाधिमरण कर मधु मुनि सनत्कुमार स्वर्ग में उत्तम देव हुआ। देखा कर्मो का खेल युद्ध के मैदान में वैराग्य हो गया।
अनंत सागर
कर्म सिद्धांत
1 जून 2021, मंगलवार
भीलूड़ा (राज.)
Give a Reply