यस्य स्वयं स्वाभावाप्ति, रभावे कृत्स्नकर्मण:
तस्मै संज्ञान रूपाय नमोस्तु परमात्मने
अर्थ
जिनको सम्पूर्ण कर्मों के अभाव होने पर स्वयं ही स्वभाव की प्राप्ति हो गई है, उस सम्यग्ज्ञान परमात्मा को नमस्कार हो।
आज से साप्ताहिक अंतर्मुखी पाठशाला अंतर्भाव हम शुरू कर रहे हैं, जहां आप को आध्यात्मिक ज्ञान सुनने और पढ़ने को मिलेगा संसा
संसार में जो आत्मा दुख का अनुभव कर रही है, वह शरीर के निमित्त से कर रही है।आत्मा कर्म रहित है और शरीर की रचना कर्मों से होती है। आत्म चिन्तन से शरीर और आत्मा अलग-अलग हो जाते हैं।तुम अभी जितने दुखों का अनुभव कर रहे हो, उसका कारण है कि तुमने शरीर को अपना मान लिया है।शरीर को पराया मानकर सांसारिक क्रिया करने वाला ही आत्मा को समझ सकता है।जो शरीर को धर्म का साधन मान कर इस्तेमाल करता है, वह दुख में भी सुख का अनुभव कर लेता है।
शरीर की रचना
- ज्ञानावरण
- दर्शनावरण
- वेदनीय
- मोहनीय
- आयु
- नाम
- गोत्र
- अंतराय
आठ कर्म द्रव्य कर्म के अलावा राग-द्वेष भाव, कर्म और आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्चास, भाषा, मन यह पर्याप्त औदारिक, आहारक, तेजस और कार्माण शरीर, इन नव कर्म से हुई है। इन सब कर्मों ने आत्मा को परतंत्र कर दिया है।आत्मा को स्वतंत्र करने के लिये संस्कारों और अनुभव के साथ आत्म ध्यान करने की आवश्यकता है।हर क्षण के सुख और दुख में सुखी और दुखी होने की बजाए अपने आपको आत्म चिन्तन में लगाए रखना होगा।आत्म चिंतन परिग्रह के साथ नहीं हो सकता है ।पुण्य से धन, वैभव प्राप्त होता है तो उसका उपयोग भरत चक्रवर्ती की तरह करना होगा।जैसे भरत के पास 6 खण्ड का राज्य था लेकिन उन्होंने इसे अपना कभी नहीं माना।भरत को दीक्षा लेते ही अन्तर्मूहुर्त में केवलज्ञान प्राप्त हो गया था। यही आत्मिक सुख, शाश्वत सुख है। इसी की प्राप्ति के धर्म-कर्म करते हैं।इसी आत्मा की आज पूजा हो रही है, नमस्कार हो रहा है। यही आत्मा तुम्हारे अन्दर है।उसे प्राप्त करने के लिए तुम्हें अपने आप को अकेला समझना होगा।
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