धर्मानुरागी बंधुओं….आज हम आचार्य वट्टकेर द्वारा रचित मूलाचार ग्रन्थ की कुछ गाथाओं के बारे में बात करेंगे। उन्होनें इन गाथाओं में बताया है कि संसार में रह रही आत्मा को ऐसा क्या चिंतन करना चाहिए जिससे वह कर्मबन्ध से बचे और उसका मरण व्यवस्थित हो जाए। इन गाथाओं का चिंतन करने से भाव निर्मल हो जाते हैं और सकारात्मक सोच के साथ जीने का रास्ता मिलता है।
1. णाणं सरणं मे दंसणं च सरणं चरियसरणं च ।
तव संजमं च सरणं भगवं सरणो महावीरो ॥
अर्थात
मुझे ज्ञान शरण, दर्शन शरण, चारित्र शरण, तपश्चरण और संयम शरण तथा भगवान महावीर की शरण प्राप्त हो।
2. जा गदी अरहंताणं णिट्टिदट्टाणं च जा गदी।
जा गदी वीदमोहाणं सा मे भवदु सस्सदाश् ॥
अर्थात
जो गति अर्हंतों, सिद्धों तथा वीतरागी जीवों की होती है, वही गति सदा मेरी भी हो।
3. एगं पंडियमरणं छिदइ जाईसयाणि बहुगाणि ॥
तं मरणं मरिदव्वं जेण मदं सुम्मदं होदि।।
अर्थात
एक ही पंडितमरण बहुविध से सौ-सौ जन्मों को समाप्त कर लेता है, इसलिए ऐसा मरण प्राप्त करना चाहिए जिससे मरण सुमरण हो जाए।
4. श्एगम्हि य भवग्हणे समाहिमरणं लहिज्ज जदि जीवो।
सत्तट्टुभवग्गहणे णिव्वाणमणुत्तरं लहदि।।
अर्थात
यदि जीव एक भव में समाधिमरण को प्राप्त कर लेता है तो वह सात या आठ भव लेकर पुनः सर्वश्रेष्ठ निर्वाण को प्राप्त कर लेता है।
5. णत्थि भयं मरणसमं जम्मणसमयं ण विज्जदे दुक्खं।
जम्मणमरणादंकं छिदि मर्मात्त सरीरादो ॥
अर्थात
मरण के समान अन्य कोई भय नहीं है और जन्म के समान अन्य कोई दुख नहीं है अतः जन्म मरण के कष्ट का निमित्त बनने वाले ऐसे शरीर का मोह छोड़ो।
अनंत सागर
अंतर्भाव
( पैतीसवां भाग)
25 दिसम्बर, 2020, शुक्रवार, बांसवाड़ा
अंतर्मुखी मुनि श्री पूज्य सागर जी महाराज
(शिष्य : आचार्य श्री अनुभव सागर जी)
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