किसी छोटे बच्चे से कुछ भी पूछो तो वह सत्य ही बोलता है। बच्चे को नही पता कि उसे क्या बोलना है। वह तो सहजता में वही बोलता है जो उसने देखा या सुना है क्योंकि उसे मायाचारी, असत्य बोलना नही आता है। उसे नहीं पता है कि उसके बोलने का परिणाम क्या होगा इसीलिए तो बच्चों को भगवान का स्वरूप कहते हैं। हमें भी आत्म चिन्तन करते समय सहज रहना चाहिए। जो-जो पाप हुए है उनकी आलोचना करनी चाहिए। मूलाचार में कहा है कि
जह बालो जंप्पन्तो कज्जमकज्जम् च उज्जुयं भणदि ।
तह आलोचे यव्वं माया मोसं च मोत्तूण ।।
अर्थात -जैसे बालक सरल भाव से बोलता हुआ कार्य और अकार्य सभी को कह देता है, उसी प्रकार से मायाभाव और असत्य को छोड़कर स्वयं की आलोचना करना चाहिए।
पापों की आलोचना करे बिना आत्मचिंतन सम्भव नही है। पापों आलोचना करते समय मायाचारी और असत्य का त्याग होना अत्यंत आवश्यक है। पापों की आलोचना से ही मन, वचन, काय पवित्र होते हैं और तभी आत्मचिंतन भी सम्भव है। किसी बर्तन में कचरा जमा हो और उसमें स्वच्छ पानी डाल दिया जाए तो वह पानी भी कचरा युक्त हो जाएगा क्योंकि बर्तन में पहले से ही कचरा भरा हुआ था। ठीक इसी प्रकार पहले से आत्मा के साथ पाप लगा हो तो आत्मचिन्तन भी पाप रूप हो जाएगा।
अनंत सागर
अंतर्भाव
(तैतीसवां भाग)
11 दिसम्बर, 2020, शुक्रवार, बांसवाड़ा
अंतर्मुखी मुनि श्री पूज्य सागर जी महाराज
(शिष्य : आचार्य श्री अनुभव सागर जी)
Give a Reply