अंतर्भाव

दृष्टि बदलो, पूरी दुनिया तुम्हारी मित्र हो जाएगी – अंतर्मुखी मुनि श्री पूज्य सागर जी महाराज

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संसार सुख -दुःख का मेला है। प्राणी को इस संसार रूपी मेले में सुख और दुख दोनों के साधन मिलते…

रावण… लेकिन मेरा पछतावा मेरी अच्छाई का प्रमाण! – अंतर्मुखी मुनि श्री पूज्य सागर जी महाराज

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मैनें सीता का हरण तो किया पर उसका भोग नहीं किया, क्योंकि वह मुझे नहीं चाहती थी। वह मेरे अपने…

संस्कारों ने मोहनदास को बनाया महात्मा – अंतर्मुखी मुनि श्री पूज्य सागर जी महाराज

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मैं जैन नही हूं पर जैन धर्म के सिद्धांतों को मानने वाला और उन पर चलने वाला व्यक्ति हूँ। मैं…

आध्यात्म ही सफल जीवन का आधार है – अंतर्मुखी मुनि श्री पूज्य सागर जी महाराज

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अज्ञानता से अधर्म का जन्म होता है। इस अधर्मिता का एक स्वरूप आत्महत्या भी है। आजकल आत्महत्या एक जघन्य अपराध…

विश्वास एक मज़बूत नींव – अंतर्मुखी मुनि श्री पूज्य सागर जी महाराज

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दुनिया में जितने व्यक्ति है उनके अंदर विश्वास, आत्मविश्वास और अंधविश्वास ने हर व्यक्तित्व सामर्थ्यानुसार जगह बना रखी है। मानव…

अपने आप को आत्म चिंतन में लगाना चाहिए – अंतर्मुखी मुनि श्री पूज्य सागर जी महाराज

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यस्य स्वयं स्वाभावाप्ति, रभावे कृत्स्नकर्मण: तस्मै संज्ञान रूपाय नमोस्तु परमात्मनेअर्थजिनको सम्पूर्ण कर्मों के अभाव होने पर स्वयं ही स्वभाव की प्राप्ति हो गई है, उस सम्यग्ज्ञान परमात्मा को नमस्कार हो। आज से साप्ताहिक अंतर्मुखी पाठशाला अंतर्भाव हम शुरू कर रहे हैं, जहां आप को आध्यात्मिक ज्ञान सुनने और पढ़ने को मिलेगा संसा संसार में जो आत्मा दुख का अनुभव कर रही है, वह शरीर के निमित्त से कर रही है।आत्मा कर्म रहित है और शरीर की रचना कर्मों से होती है। आत्म चिन्तन से शरीर और आत्मा अलग-अलग हो जाते हैं।तुम अभी जितने दुखों का अनुभव कर रहे हो, उसका कारण है कि तुमने शरीर को अपना मान लिया है।शरीर को पराया मानकर सांसारिक क्रिया करने वाला ही आत्मा को समझ सकता है।जो शरीर को धर्म का साधन मान कर इस्तेमाल करता है, वह दुख में भी सुख का अनुभव कर लेता है। शरीर की रचना  ज्ञानावरण  दर्शनावरण  वेदनीय  मोहनीय  आयु  नाम  गोत्र  अंतराय आठ कर्म द्रव्य कर्म के अलावा राग-द्वेष भाव, कर्म और आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्चास, भाषा, मन यह पर्याप्त औदारिक, आहारक, तेजस और कार्माण शरीर, इन नव कर्म से हुई है। इन सब कर्मों ने आत्मा को परतंत्र कर दिया है।आत्मा को स्वतंत्र करने के लिये संस्कारों और अनुभव के साथ आत्म ध्यान करने की आवश्यकता है।हर क्षण के सुख और दुख में सुखी और दुखी होने की बजाए अपने आपको आत्म चिन्तन में लगाए रखना होगा।आत्म चिंतन परिग्रह के साथ नहीं हो सकता है ।पुण्य से धन, वैभव प्राप्त होता है तो उसका उपयोग भरत चक्रवर्ती की तरह करना होगा।जैसे भरत के पास 6 खण्ड का राज्य था लेकिन उन्होंने इसे अपना कभी नहीं माना।भरत को दीक्षा लेते ही अन्तर्मूहुर्त में केवलज्ञान प्राप्त हो गया था।…
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